(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Tuesday 26 December 2017

दिलचस्प भगवान

(पिछला हिस्सा यहां पढ़ें)


बात तो दिलचस्प है। ‘ईश्वर जब हमें पिता बनने के लिए चुनते हैं तो हमारे लिए बड़ी इज़्ज़त की बात होती है’, करन जौहर से लगभग यही तो कहा शाहरुख ने।

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि ‘भगवान’ के प्रचार-प्रसार और ‘मेंटेनेंस’ में हिंदी फ़िल्मों की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

कैसे चुनता होगा भगवान ? क्या ईवीएम से ? या बैलेट पेपर्स के ज़रिए ? दिलचस्प है कि भगवान तो एक ही है पर जिनमें से चुनना है वे अरबों हैं ! उनमें से कई पिता बनने से पहले ही चल बसते हैं, कई पिता बनने के बाद ज़्यादा दिन बच्चों का साथ नहीं दे पाते ? ज़ाहिर है कि अधूरा साथ देने के लिए भी भगवान ही उन्हें चुनता होगा ? उनमें से कई पिता बीमार होते हैं, कई बच्चे बीमार होते हैं ; भगवान उन्हें बीमार होने और रहने के लिए ही चुनता होगा!  वैसे एक और ज़रुरी बात हमें याद रखनी चाहिए कि भारत में बहुत कम लड़कियों को अपने लिए पति चुनने का मौक़ा मिलता है। जिन ढेरों लड़कियों को अपने लिए पति चुनने का मौक़ा नहीं मिलता उन के पतियों को भी भगवान उनके बच्चों का पिता बनने का मौक़ा दे देता है! कई लड़कियां पुरुषों की धोखाधड़ी और बलात्कार की वजह से भी तो मां बन जातीं हैं, उनको धोखाधड़ी, बलात्कार और मां बनने के लिए भी तो भगवान ही चुनता होगा! उससे भी पहले भगवान उन पुरुषों को धोखाधड़ी, बलात्कार और अंततः पिता बनने के लिए चुनता होगा। समानता लाने के लिए क्या-क्या तरीक़े ईज़ाद कर लिए हैं भगवान ने !
आखि़र शाहरुख को पता कैसे लगा होगा कि भगवान ही चुनते हैं ? क्या वे कोई प्रमाण दे सकते हैं ? कहां गई ये अंधश्रद्धा-उन्मूलन/निर्मूलन संस्थाएं ?

मेरी समझ में यह शब्दों की ताक़त नहीं शब्दों के दुरुपयोग की ताक़त है। यह उनके दोहराव के दुरुपयोग की ताक़त भी है। भगवान शब्द को इतनी बार इतने तरीक़ों से इतनी भाषा-बोलियों-शिल्प-शैलियों में दोहराया गया कि लोग उसे सच समझने लगे। लोग तो कहते हैं कि एक झूठ को अगर सौ बार दोहराया जाए तो वह सच लगने लगता हैं, भगवान तो मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों में, सीरियलों में, रिएलिटी शोज़ में, कैलेंडरों में, डायरियों में, फ़िल्मों में, न जाने कहां-कहां पर कितनी बार दोहराया जा रहा है ! 

(जारी)

-संजय ग्रोवर
26-12-2017




Wednesday 20 December 2017

ताक़त की कमज़ोरी

यूं तो इससे पहले कुछ पैंडिंग/लंबित पड़े लेख/मामले निपटाने का इरादा था मगर चैनल बदलते-बदलते कुछ ऐसा दिख गया कि जो लिखना था लिख गया।

( ‘‘कुछ ऐसा दिख गया कि जो लिखना था लिख गया’’ वाक्य के कोई ख़ास मायने नहीं हैं, बस फ़िल्मी क़िस्म का डायलॉग ही है)

बात हो रही थी शब्दों की ताक़त पर। पहले वह बताता हूं जो आखि़र में हुआ। शाहरुख बता रहे थे कि जावेद अख़्तर ग़ुस्से में भी अगर लफ़्ज़ फेंक देते हैं तो वो सोना बन  जाते हैं। उन्होंने क़िस्सा सुनाया कि ‘कुछ-कुछ होता है’ के दौरान जावेद ने ग़ुस्से में कहा कि क्या आपको ऐेसे गाने चाहिए कि ’अब तो मेरा दिल जागे न सोता है, क्या करुं हाए, कुछ-कुछ होता है ! और जावेद नाराज़गी में फ़िल्म छोड़कर चले गए। बाद में गाना भी हिट और फ़िल्म भी हिट। जावेद ने कन्फ़र्म किया कि यह सच्ची घटना है, बाद में उन्हें इतनी हिट फ़िल्म छोड़ देने का बहुत अफ़सोस हुआ।

मुझे कतई समझ में नहीं आया कि जावेद को दरअसल अफ़सोस किस बात पर हुआ !? उन्हींके अनुसार उन्हें ‘कुछ-कुछ होता है’ में डिग्निटी ज़रा कम नज़र आई। तो क्या गाना हिट हो जाने से डिग्निटी ठीक हो गई !? आप कोई चीज़ कचरे में फेंक आएं और बाद में पता चले कि वही चीज़ लोग महंगे में ख़रीद रहे हैं तो आप लौटकर उसकी क़ीमत वसूलने जाईएगा !? क्या हिट/पॉपुलर हो जाने से चीज़ों की डिग्निटी बढ़ जाती है ? अगर हां, तो जावेद ने हिट होने से पहले ही यह कैसे मान लिया था कि डिग्निटी कम है ? अगर यह गाना फ़्लाॅप हो जाता तो भी कोई इसकी डिग्निटी की बात करता या दो सस्ते लफ़्ज़ समझकर इसको भूल जाता ?

सवाल तो और भी हैं। जब जावेद दो लाइन फेंककर चले आए तो गाना पूरा किसने किया ? सारा सोना इन्हीं दो लाइनों से बना या बाक़ी का गीत लिखनेवाले को भी बाक़ी सोने का क्रेडिट जाता है ?

इसी कार्यक्रम में शाहरुख ने यह भी कहा कि ‘ईश्वर जब किसीको पिता बनने के लिए चुनता है.....'। इसपर और शब्दों की बाक़ी ताक़त पर भी विचार करेंगे कुछ और देर के बाद।

यह बहुत ज़रुरी है।

आपको मेरी बातों में कुछ अजीब लगा हो तो आप कमेंट करने के लिए पूरी तरह सेआज़ाद हैं। मैं जवाब ज़रुर देता हूं।

(जारी)

-संजय ग्रोवर
20-12-2017