(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Tuesday 27 September 2016

पार्च्ड PARCHED : मसीहा से मुक्ति


दिलचस्प है कि यहां भी तीन सहेलियां हैं मगर वे अनपढ़ हैं, राजस्थानी गांव के सूखे में सूख रहीं हैं, पिट रहीं हैं, ग़रीब तो हैं ही मगर उन्हें किसी अवतार, किसी मसीहा, किसी राम, किसी कृष्ण की तलाश नहीं है। वे ग़ालियों से लेकर रंगीनियों तक पर आपस में बात करतीं हैं, बहस करतीं हैं।

लाजो को लगता है कि वह बांझ है मगर इसपर भी वह ठहाका मारकर हंसती है। यही होना भी चाहिए था। अगर कोई कुदरतन बांझ या नपुंसक है तो इसमें दूसरों से शर्मिंदा रहने का कोई कारण नहीं है। मगर दूसरे लोग उसकी हंसी पर गंभीर हो जाते हैं। उसको बांझ ‘लगाने’ या बनाने में उनकी गंभीरता का भी हाथ है। फ़िलहाल तो समझना मुश्क़िल है कि किस समस्या के पीछे किसका या किस-किसका हाथ है। लेकिन यह लगातार समझना और समझते रहना पड़ेगा। क्यों हम भ्रष्टाचार से लेकर बलात्कार तक को हटाने तक के लिए मसीहा ढूंढने लग पड़तें हैं और हर बार वह मसीहा पुरुष ही क्यों होता है, हर बार स्त्री वापिस उसी हालत और उन्हीं हालात में क्यों पहुंच जाती है, समझना ज़रुरी है। मसीहा हमें मुक्त बनाते हैं या और ज़्यादा परनिर्भर कर देते हैं !?

इस फ़िल्म की स्त्रियां धीरे-धीरे समझतीं भी हैं। अगले एक दृश्य में ‘बांझ’ पर उनकी राय को बदलते भी दिखाया गया है। 

इस फ़िल्म में भी एक अच्छा पुरुष है जो माथे पर टीका लगाता है और जिसका नाम कृष्ण है। अच्छा होने के लिए ऐसे प्रतीक क्यों ज़रुरी हैं!? मुझे पहला बड़ा धक्का तब लगता है जब लाजो कहती है कि बच्चे का नाम राम रखेंगे, यह पाप दूर करेगा। पता नहीं हमारे बुद्धिजीवियों की क्या मजबूरी है कि वे सहज यथार्थ में बुरे स्वप्न घुसेड़ देते हैं। मगर ग़नीमत है कि फ़िल्म का अंत फ़िल्म की शुरुआत और मध्य की तरह ही मज़ेदार और दमदार है। इस अंत में ही/भी कई संभावनाएं हैं।


राधिका आप्टे का अभिनय शानदार है। तनिष्ठा चटर्जी और लहर खान, दोनों ने दब्बूपन से उभरने की प्रक्रिया को पूरे धैर्य से जिया है। सुरवीन चावला ने बिंदास स्त्री की मुखरता को नये रंगों से निखारा है। ज़्यादातर सभी का अभिनय यथार्थ के क़रीब है। निर्देशक लीना यादव के पास बात कहने का अपना तरीक़ा भी है और साहस भी।


सजा हुआ ऑटो-रिक्शा चलाते हुए सुरविन चावला अद्भुत ढंग से सहज और सुंदर दिखतीं हैं। फ़िल्म के सभी स्त्रीपात्र अपने दुखों और सन्नाटे के बीच रौनक रचते रहते हैं जिससे दर्शकों को सिर्फ़ राहत ही नहीं मिलती बल्कि वे बुक्का फाड़कर हंस भी सकते हैं। हांलांकि फ़िल्म में स्त्रियां ग़लत बातों पर या कहें कि अपने ही खि़लाफ़ भी हंसती हैं। पर यह ज़िंदगी में भी होता है ; अच्छी बात यह है कि अब हम इसे समझने के लिए तैयार हो रहे हैं।


फ़िल्म को दो-तीन बार और देख पाया तो और भी लिखूंगा। मैं इसे दो-तीन बार और, आराम से देख सकता हूं। 

-संजय ग्रोवर
27-09-2016


Sunday 18 September 2016

पिंक: भक्तिकरण और सशक्तिकरण

फ़िल्म की शुरुआत में रश्मि शर्मा फ़िल्म्स् का लोगो/मोनोग्राम दिखाई देता है जिसमें एक मर्द, चेहरा देखनेवालों के सामने किए, बांसुरी बजा रह़ा है। सर में मोरपंख लगा है। साथ में एक स्त्री है जिसका साइड पोज़ दिखाया गया है, बल्कि उसकी पीठ दर्शकों की तरफ़ है, स्त्री भयभीत मालूम होती है, उसका सिर लगभग बांसुरी के नीचे से शुरु होता है। इस तस्वीर को देखकर एक प्रचलित-पौराणिक किरदार कृष्ण की याद आना स्वाभाविक है। वही कृष्ण जिन्होंने (एक सुनी हुई कहानी के अनुसार) अर्जुन को मार-काट की ‘फ़िलॉस्फ़ी’ समझाई और ख़ुद दुशासन को मारने के बजाय द्रोपदी का चीर बढ़ाकर समय को लंबा खींचते रहे। मुझे इंटरनेट पर लगे कुछ तथाकथित प्रगतिशीलों के फ़ोटोग्राफ्स याद आते हैं जिनमें वे अपना एक हाथ अपने साथ खड़ी स्त्री के पीछे ले जाते हुए उसके दूरवाले कंधे पर रखकर उसे सहारा दिए रहते हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि यह किस टाइप का सशक्तिकरण है जिसमें स्त्री फ़ोटो में भी बिना पुरुष के सहारे के खड़ी नहीं हो सकती !? फिर सोचता हूं कि (कहानीनुसार) जो कृष्ण सोलह हज़ार रानियां घर में रखते हैं और कई गोपियों को डेली जमुना-किनारे बुलाते हैं, उनके कपड़े चुराते हैं ; जिनकी गोपियों और पत्नियों के लोगों को नाम तक नहीं पता, वे स्त्रियों का सशक्तिकरण करते रहे या अपना !? क्या स्त्रियां आज भी पुराने टाइप के फ़ोटोफ्रेमों की तरह हैं जिनके पीछे स्टैंड न लगा हो तो फ़ोटोफ्रेम गिर-गिर जाते थे !? आगे मैं सोचता हूं कि कृष्ण घर में और जमुना किनारे पर स्त्रियों की इतनी भीड़ जमा करके करते क्या थे !? चाहते क्या थे !? क्या यह आजकल के मर्दों/लड़कोंवाला अहंकार नहीं था कि ‘मुझे तो इतनी लड़कियां जानतीं हैं या मरतीं हैं, कोई भी काम पड़े, मेरे पास ही आतीं हैं (हालांकि मैंने-कहानीनुसार-द्रोपदी और अन्य मित्रों-रिश्तेदारों का क्या किया यह भी वे जानतीं हैं, फिर भी आतीं हैं..)....

(शेष कुछ समय बाद....)

18-09-2016


यह ब्लॉग शुरु करने के पीछे मंशा भी यही थी कि मैं किसीकी आरती नहीं उतारुंगा, जो मुझे लगता है, और लगता है कि इससे मेरा और समाज का नुकसान होता है, वह लिखूंगा।
 

इस फ़िल्म में एक डायलॉग है कि ‘स्त्री की नो का मतलब है नो’। सच तो यह है कि दोहरे-तिहरे-चौहरे........मानदंडों वाले समाज में किसीकी, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष, नो का मतलब नो और यस का मतलब यस नहीं होता। यह बहुत मुश्क़िल इसलिए है कि हमारे धर्म, संस्कृति, साहित्य और फ़िल्में....जी हां फ़िल्में, सभी हमको सिखाते हैं कि दिखाने के दांत अलग और खाने के अलग होने चाहिए, पोस्टर या प्रोमों में वास्तविक कृति का बैस्ट हिस्सा दिखाना चाहिए। इसमें हिंदी फ़िल्मों का भी बड़ा हाथ है कि स्त्री किसीको चाहते हुए भी पहली बार में यस इसलिए नहीं कर सकती कि कहीं उसे चालू न समझ लिया जाए। हम लोग तो किसी मित्र-रिश्तेदार के भी घर जाते हैं तो पहली बार तो चाय-पानी के लिए भी ना-ना करते हैं जबकि बाद में हम आराम से खा-पीकर लौटते हैं। इस सबका मतलब यह नहीं कि स्त्री की नो का मतलब यस है या मर्द की यस का मतलब नो है। दरअसल तो यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर है, वही बता सकता है कि क्या बात कहते हुए उसके मन में दरअसल क्या था, कोई एक आदमी सबके स्वभाव को तय नहीं कर सकता। न तो सारी स्त्रियां एक जैसी हैं न सारे मर्द। हिंदी फ़िल्मों में बहुत सारे गीत ऐसे हैं जो बताते हैं हमारी फ़िल्में शुरु से ऐसी बिलकुल नहीं थी जैसी अब हम हम बना रहे हैं। एक-दो गीत लगा रहा हूं, बाक़ी आप ख़ुद भी खोज सकते हैं।


जब भारत के लोग पाक़िस्तान जाते हैं तो लौटकर बताते हैं कि हमारा तो बड़ा सत्कार हुआ और यहां आकर पाक़िस्तानी लोग भी यही कहते हैं। लगता है विज्ञापन में अतिथि-सत्कार की परंपरा गंगा-जमुनी दोनों संस्कृतियों में बहुत बढ़िया है। और आजकल इन्हींमें से कई लोग एक-दूसरे के बारे में क्या-क्या कह रहे हैं वह भी सामने ही है।
 


जहां हर आदमी बिना डरे ना को ना और हां को हां की तरह व्यक्त कर सके वहां पूरे समाज का सच्चा और ईमानदार होना ज़रुरी है।

29-09-2016

वैसे मुझे यह सोचकर ही हंसी आती है कि एक रंग-विशेष पहनने से लोग आज़ाद हो सकते हैं। क्या आज़ादी इतनी ही आसान और बचकानी चीज़ है!?

11-03-2017


(आगे और भी)

-संजय ग्रोवर  





Thursday 15 September 2016

मां-बाप, तर्क और फ़िल्मी लोग

कई महीने बाद टीवी रीचार्ज कराया। आठ-दस दिन से कई मजेदार चीज़ें देख रहा हूं। आज जैसे ही रिमोट चलाया, एक चैनल पर किसी पुराने सीरियल में एक नया और जवान लड़का किसीसे कह रहा था-‘तुम अगर मेरे मां-बाप का आदर नहीं कर सकते तो मैं नहीं सोचता कि तुमसे रिश्ता रखना चाहिए.......’

मैं हंसा, हंसने के अलावा करता भी क्या!

मैंने सोचा फ़िर तुमसे रिश्ता रखके करेंगे भी क्या !? तुम्हारे मां-बाप से ही रख लेते हैं। तुम तो ख़ुद अपनी नज़र में भी किसी काम के नहीं हो। तुम तो ख़ुद ही बता रहा हो कि हम तो डब्बे जैसे हैं, इंजन तो मां-बाप ही हैं। बिना इंजन के डिब्बे हैं भी किस मतलब के। जब सारे बिल मां-बाप ने ही पास करने हैं तो तुम चुपचाप बैठे रहो स्टूल पर। यह जो बोल रहे हो यह भी मां-बाप ने लिखकर दिया होगा। यह भी कोई बताने की बताने की बात है कि ‘मैं नहीं सोचता......’। तुम सोच भी कैसे पाओगे? तुम्हारी जगह तुम्हारे मां-बाप ही सोचते होंगे...और उनकी जगह उनके मां-बाप सोचते होंगे।

अभी तो चलो तुम्हारे मां-बाप जैसे-तैसे जीवित होंगे लेकिन जब वो नहीं रहेंगे तो लोग तुमसे रिश्ता कैसे रखेंगे?

मैंने एक कहानी अकसर सुनी है जिसमें एक होनेवाले नायक के पिताजी उसे इसलिए जंगल में भेज देते हैं कि उन्होंने उसकी सौतेली मां को नायक के जन्म से पहले कोई वचन दिए थे। नायक पलटकर यह भी नहीं पूछता कि मेरे पैदा होने से पहले, मेरी सहमति के बिना, किसीको दिए आपके वचनों के लिए मैं अपनी ज़िंदगी क्यों बर्बाद करुं, मेरा क्या लेना!? यह तथाकथित महानायक अपने घर में शुरु होनेवाले ज़बरदस्त अन्याय का कोई विरोध नहीं कर पाता, चूं तक नहीं करता। कहते हैं कि कई लोग इस नायक को अन्याय पर न्याय की विजय की प्रेरणा देनेवाले महापुरुष की तरह याद करते हैं, त्यौहार मनाते हैं।

जिधर भी बटन दब जाए, वहीं कॉमेडी दिखाई देती है।

अभी एक फ़िल्म के कुछ दृश्य देखने को मिल गए जो फ़िल्म कम और तार्किकता पर बौख़लाहट ज़्यादा लग रही थी। दिलचस्प यह है कि इन्हीं में से या ऐसे ही कई लोग पहले तर्क/शास्त्रार्थ का ठेका लिए बैठे थे। अब नई टैक्नोलॉजी और नए प्रसार/प्रचार माध्यमों के ज़माने में इनकी तथाकथित तार्किकता और विद्वता ढही जा रही है तो ये कभी तर्क को गाली दे रहे हैं तो कभी नये तर्कों को पुरानी कहानियों में हास्यास्पद ढंग से फ़िट करने की कोशिश में लगे हैं।

‘भारतवर्ष’ नाम के एक सीरियल की आधी क़िस्त भी देखी। इसपर भी बात करेंगे।

-संजय ग्रोवर
15-09-2016