(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Monday 26 December 2016

दंगल: बच्चों के लिए घातक बापू (यानि माता-पिता एंड कंपनी)

शायद बारहवीं में पढ़ता होऊंगा, एक दोस्त से किसी फ़िल्म की कुछ बुराई कर दी तो बोला कि उनके करोड़ो रुपए लग जाते हैं और तुम तो मुंह उठाके किसीकी भी बुराई कर देते हो! मैंने कहा युद्ध में भी ख़रबों रुपए लग जाते हैं तो क्या सिर्फ़ इसी वजह से मैं मार-काट की तारीफ़ करने लगूं! बहरहाल, वह दोस्त न तो घोषित विद्वान था न कोई बड़ा, पैसे या नामवाला आदमी था मगर यहां तो देखता हूं कि प्रगतिशीलता और समानता के पक्षधर, ग़रीब जनता की हमदर्द विचारधाराओं के आला सिपाही, बड़े लोगों/नामों को महान ठहराने के लिए विचित्र से विचित्र बहाने और पवित्र से पवित्र भाषा खोज लाते हैं। ये महान लोग इतना भी नहीं समझते कि फ़ोटोग्राफ़ी, कोरियोग्राफ़ी, ड्रेस-डिज़ाइनिंग आदि की समझ भले ही सबको न होती हो मगर फ़िल्म में एक कहानी होती है जिसको कहने का सबका अपना-अपना ढंग होता है और जिसका लोगों पर तरह-तरह का असर होता है। उसे आज भी कई लोग पैसे ख़र्च करके देखते हैं। कुछ अजीब लगता है तो उन्हें उसे बताने का पूरा हक़ है।

यह फ़िल्म शुरु में ही झटका देती है जब आमिर खान कहते हैं कि जो काम मैं नहीं कर पाया, अपने बेटे से करवाऊंगा। भारतीय बापों(एंड कंपनी) की इसी मानसिकता ने कई बच्चों को अवसाद और मानसिक रुग्णता में डाले रखा है। आगे आमिर यह ज़बरदस्ती अपनी लड़कियों से कर डालते हैं। छोटी बच्चियों को सुबह-सुबह उठाकर ज़बरदस्ती दौड़ाना, बिना उनकी मरज़ी के बाल कटाना, उनके स्वाद छीनना....सब कुछ मन को कचोटता है। यहां तक, अपने बच्चों पर अपनी अभिलाषाएं/आकांक्षाएं ज़बरदस्ती थोपने की यह पुरानी भारतीय कहानी है।

चूंकि फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित बताई गई है इसलिए निर्देशक और लेखक को इसके लिए दोष देना अतार्किक होगा, मगर फ़िल्म में कई चीज़ें हैं जो भारत में बच्चों के साथ ज़बरदस्ती की मां-बाप एंड कंपनी की पहले-से चली आ रही प्रवृति को देशभक्ति के नाम पर बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हो सकतीं हैं।

हां, स्त्रीमुक्ति की एकतरफ़ा दृष्टि से देखें तो फ़िल्म ज़ोरदार लगने लगती है। आवश्यक तो नहीं मगर यह संभावना ज़रुर होती है कि जो लड़की शारीरिक रुप से मजबूत हो वह पुरुषों के बीच जाकर आसानी से नहीं डरेगी, उनके और दुनिया के बीच आसानी से रह पाएगी। आवश्यक इसलिए नहीं है क्योंकि दमदार, मजबूत मर्द भी रिश्वतखोरों और नाम/पैसेवालों की ग़लत हरक़तों के सामने आसानी से घुटने टेकते पाए जाते हैं। भीड़ के खि़लाफ़ जा सकने का आत्मविश्वास ना जुटा पाने के कारण ही अकसर लोग ग़ुलामी की ज़िंदगी जीने को मजबूर होते हैं। (मैं तो इसकी चिंता किए बिना लिखता हूं कि बाक़ी समीक्षक क्या लिख रहे हैं, फ़िल्म कितनी चल रही है, पहले दिनों की कमाई कितनी है ;-)। जिसको जो अच्छा लगे ज़रुर करना चाहिए, मगर यहां लड़कियों ने पहलवानी अपनी मर्ज़ी से नहीं चुनी।

मैंने सोचा था कि इस फ़िल्म के बारे में नहीं लिखूंगा, लोग समझेंगे कि यह किसी व्यक्ति-विशेष का कट्टर विरोधी है मगर इसका क्या करुं कि मैं लेखन के क्षेत्र में आया ही इसलिए कि मुझे ऐसा लगता था कि कुछ बातें ऐसी हैं जिनके बारे में कोई नहीं लिखता और मुझे यह काम करना चाहिए।

ठीक इसी वक़्त आजतक पर आमिर और उनकी टीम बैठी है और गीता और बबिता बेधड़क बातें कर रहीं हैं। टीवी स्टूडियो में हर आम आदमी इसी तरह कम्फ़र्टेबल हो सके तो मज़ा ही आ जाए। 

(संभवत आगे और भी)

-संजय ग्रोवर
26-12-2016

Tuesday 27 September 2016

पार्च्ड PARCHED : मसीहा से मुक्ति


दिलचस्प है कि यहां भी तीन सहेलियां हैं मगर वे अनपढ़ हैं, राजस्थानी गांव के सूखे में सूख रहीं हैं, पिट रहीं हैं, ग़रीब तो हैं ही मगर उन्हें किसी अवतार, किसी मसीहा, किसी राम, किसी कृष्ण की तलाश नहीं है। वे ग़ालियों से लेकर रंगीनियों तक पर आपस में बात करतीं हैं, बहस करतीं हैं।

लाजो को लगता है कि वह बांझ है मगर इसपर भी वह ठहाका मारकर हंसती है। यही होना भी चाहिए था। अगर कोई कुदरतन बांझ या नपुंसक है तो इसमें दूसरों से शर्मिंदा रहने का कोई कारण नहीं है। मगर दूसरे लोग उसकी हंसी पर गंभीर हो जाते हैं। उसको बांझ ‘लगाने’ या बनाने में उनकी गंभीरता का भी हाथ है। फ़िलहाल तो समझना मुश्क़िल है कि किस समस्या के पीछे किसका या किस-किसका हाथ है। लेकिन यह लगातार समझना और समझते रहना पड़ेगा। क्यों हम भ्रष्टाचार से लेकर बलात्कार तक को हटाने तक के लिए मसीहा ढूंढने लग पड़तें हैं और हर बार वह मसीहा पुरुष ही क्यों होता है, हर बार स्त्री वापिस उसी हालत और उन्हीं हालात में क्यों पहुंच जाती है, समझना ज़रुरी है। मसीहा हमें मुक्त बनाते हैं या और ज़्यादा परनिर्भर कर देते हैं !?

इस फ़िल्म की स्त्रियां धीरे-धीरे समझतीं भी हैं। अगले एक दृश्य में ‘बांझ’ पर उनकी राय को बदलते भी दिखाया गया है। 

इस फ़िल्म में भी एक अच्छा पुरुष है जो माथे पर टीका लगाता है और जिसका नाम कृष्ण है। अच्छा होने के लिए ऐसे प्रतीक क्यों ज़रुरी हैं!? मुझे पहला बड़ा धक्का तब लगता है जब लाजो कहती है कि बच्चे का नाम राम रखेंगे, यह पाप दूर करेगा। पता नहीं हमारे बुद्धिजीवियों की क्या मजबूरी है कि वे सहज यथार्थ में बुरे स्वप्न घुसेड़ देते हैं। मगर ग़नीमत है कि फ़िल्म का अंत फ़िल्म की शुरुआत और मध्य की तरह ही मज़ेदार और दमदार है। इस अंत में ही/भी कई संभावनाएं हैं।


राधिका आप्टे का अभिनय शानदार है। तनिष्ठा चटर्जी और लहर खान, दोनों ने दब्बूपन से उभरने की प्रक्रिया को पूरे धैर्य से जिया है। सुरवीन चावला ने बिंदास स्त्री की मुखरता को नये रंगों से निखारा है। ज़्यादातर सभी का अभिनय यथार्थ के क़रीब है। निर्देशक लीना यादव के पास बात कहने का अपना तरीक़ा भी है और साहस भी।


सजा हुआ ऑटो-रिक्शा चलाते हुए सुरविन चावला अद्भुत ढंग से सहज और सुंदर दिखतीं हैं। फ़िल्म के सभी स्त्रीपात्र अपने दुखों और सन्नाटे के बीच रौनक रचते रहते हैं जिससे दर्शकों को सिर्फ़ राहत ही नहीं मिलती बल्कि वे बुक्का फाड़कर हंस भी सकते हैं। हांलांकि फ़िल्म में स्त्रियां ग़लत बातों पर या कहें कि अपने ही खि़लाफ़ भी हंसती हैं। पर यह ज़िंदगी में भी होता है ; अच्छी बात यह है कि अब हम इसे समझने के लिए तैयार हो रहे हैं।


फ़िल्म को दो-तीन बार और देख पाया तो और भी लिखूंगा। मैं इसे दो-तीन बार और, आराम से देख सकता हूं। 

-संजय ग्रोवर
27-09-2016


Sunday 18 September 2016

पिंक: भक्तिकरण और सशक्तिकरण

फ़िल्म की शुरुआत में रश्मि शर्मा फ़िल्म्स् का लोगो/मोनोग्राम दिखाई देता है जिसमें एक मर्द, चेहरा देखनेवालों के सामने किए, बांसुरी बजा रह़ा है। सर में मोरपंख लगा है। साथ में एक स्त्री है जिसका साइड पोज़ दिखाया गया है, बल्कि उसकी पीठ दर्शकों की तरफ़ है, स्त्री भयभीत मालूम होती है, उसका सिर लगभग बांसुरी के नीचे से शुरु होता है। इस तस्वीर को देखकर एक प्रचलित-पौराणिक किरदार कृष्ण की याद आना स्वाभाविक है। वही कृष्ण जिन्होंने (एक सुनी हुई कहानी के अनुसार) अर्जुन को मार-काट की ‘फ़िलॉस्फ़ी’ समझाई और ख़ुद दुशासन को मारने के बजाय द्रोपदी का चीर बढ़ाकर समय को लंबा खींचते रहे। मुझे इंटरनेट पर लगे कुछ तथाकथित प्रगतिशीलों के फ़ोटोग्राफ्स याद आते हैं जिनमें वे अपना एक हाथ अपने साथ खड़ी स्त्री के पीछे ले जाते हुए उसके दूरवाले कंधे पर रखकर उसे सहारा दिए रहते हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि यह किस टाइप का सशक्तिकरण है जिसमें स्त्री फ़ोटो में भी बिना पुरुष के सहारे के खड़ी नहीं हो सकती !? फिर सोचता हूं कि (कहानीनुसार) जो कृष्ण सोलह हज़ार रानियां घर में रखते हैं और कई गोपियों को डेली जमुना-किनारे बुलाते हैं, उनके कपड़े चुराते हैं ; जिनकी गोपियों और पत्नियों के लोगों को नाम तक नहीं पता, वे स्त्रियों का सशक्तिकरण करते रहे या अपना !? क्या स्त्रियां आज भी पुराने टाइप के फ़ोटोफ्रेमों की तरह हैं जिनके पीछे स्टैंड न लगा हो तो फ़ोटोफ्रेम गिर-गिर जाते थे !? आगे मैं सोचता हूं कि कृष्ण घर में और जमुना किनारे पर स्त्रियों की इतनी भीड़ जमा करके करते क्या थे !? चाहते क्या थे !? क्या यह आजकल के मर्दों/लड़कोंवाला अहंकार नहीं था कि ‘मुझे तो इतनी लड़कियां जानतीं हैं या मरतीं हैं, कोई भी काम पड़े, मेरे पास ही आतीं हैं (हालांकि मैंने-कहानीनुसार-द्रोपदी और अन्य मित्रों-रिश्तेदारों का क्या किया यह भी वे जानतीं हैं, फिर भी आतीं हैं..)....

(शेष कुछ समय बाद....)

18-09-2016


यह ब्लॉग शुरु करने के पीछे मंशा भी यही थी कि मैं किसीकी आरती नहीं उतारुंगा, जो मुझे लगता है, और लगता है कि इससे मेरा और समाज का नुकसान होता है, वह लिखूंगा।
 

इस फ़िल्म में एक डायलॉग है कि ‘स्त्री की नो का मतलब है नो’। सच तो यह है कि दोहरे-तिहरे-चौहरे........मानदंडों वाले समाज में किसीकी, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष, नो का मतलब नो और यस का मतलब यस नहीं होता। यह बहुत मुश्क़िल इसलिए है कि हमारे धर्म, संस्कृति, साहित्य और फ़िल्में....जी हां फ़िल्में, सभी हमको सिखाते हैं कि दिखाने के दांत अलग और खाने के अलग होने चाहिए, पोस्टर या प्रोमों में वास्तविक कृति का बैस्ट हिस्सा दिखाना चाहिए। इसमें हिंदी फ़िल्मों का भी बड़ा हाथ है कि स्त्री किसीको चाहते हुए भी पहली बार में यस इसलिए नहीं कर सकती कि कहीं उसे चालू न समझ लिया जाए। हम लोग तो किसी मित्र-रिश्तेदार के भी घर जाते हैं तो पहली बार तो चाय-पानी के लिए भी ना-ना करते हैं जबकि बाद में हम आराम से खा-पीकर लौटते हैं। इस सबका मतलब यह नहीं कि स्त्री की नो का मतलब यस है या मर्द की यस का मतलब नो है। दरअसल तो यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर है, वही बता सकता है कि क्या बात कहते हुए उसके मन में दरअसल क्या था, कोई एक आदमी सबके स्वभाव को तय नहीं कर सकता। न तो सारी स्त्रियां एक जैसी हैं न सारे मर्द। हिंदी फ़िल्मों में बहुत सारे गीत ऐसे हैं जो बताते हैं हमारी फ़िल्में शुरु से ऐसी बिलकुल नहीं थी जैसी अब हम हम बना रहे हैं। एक-दो गीत लगा रहा हूं, बाक़ी आप ख़ुद भी खोज सकते हैं।


जब भारत के लोग पाक़िस्तान जाते हैं तो लौटकर बताते हैं कि हमारा तो बड़ा सत्कार हुआ और यहां आकर पाक़िस्तानी लोग भी यही कहते हैं। लगता है विज्ञापन में अतिथि-सत्कार की परंपरा गंगा-जमुनी दोनों संस्कृतियों में बहुत बढ़िया है। और आजकल इन्हींमें से कई लोग एक-दूसरे के बारे में क्या-क्या कह रहे हैं वह भी सामने ही है।
 


जहां हर आदमी बिना डरे ना को ना और हां को हां की तरह व्यक्त कर सके वहां पूरे समाज का सच्चा और ईमानदार होना ज़रुरी है।

29-09-2016

वैसे मुझे यह सोचकर ही हंसी आती है कि एक रंग-विशेष पहनने से लोग आज़ाद हो सकते हैं। क्या आज़ादी इतनी ही आसान और बचकानी चीज़ है!?

11-03-2017


(आगे और भी)

-संजय ग्रोवर  





Thursday 15 September 2016

मां-बाप, तर्क और फ़िल्मी लोग

कई महीने बाद टीवी रीचार्ज कराया। आठ-दस दिन से कई मजेदार चीज़ें देख रहा हूं। आज जैसे ही रिमोट चलाया, एक चैनल पर किसी पुराने सीरियल में एक नया और जवान लड़का किसीसे कह रहा था-‘तुम अगर मेरे मां-बाप का आदर नहीं कर सकते तो मैं नहीं सोचता कि तुमसे रिश्ता रखना चाहिए.......’

मैं हंसा, हंसने के अलावा करता भी क्या!

मैंने सोचा फ़िर तुमसे रिश्ता रखके करेंगे भी क्या !? तुम्हारे मां-बाप से ही रख लेते हैं। तुम तो ख़ुद अपनी नज़र में भी किसी काम के नहीं हो। तुम तो ख़ुद ही बता रहा हो कि हम तो डब्बे जैसे हैं, इंजन तो मां-बाप ही हैं। बिना इंजन के डिब्बे हैं भी किस मतलब के। जब सारे बिल मां-बाप ने ही पास करने हैं तो तुम चुपचाप बैठे रहो स्टूल पर। यह जो बोल रहे हो यह भी मां-बाप ने लिखकर दिया होगा। यह भी कोई बताने की बताने की बात है कि ‘मैं नहीं सोचता......’। तुम सोच भी कैसे पाओगे? तुम्हारी जगह तुम्हारे मां-बाप ही सोचते होंगे...और उनकी जगह उनके मां-बाप सोचते होंगे।

अभी तो चलो तुम्हारे मां-बाप जैसे-तैसे जीवित होंगे लेकिन जब वो नहीं रहेंगे तो लोग तुमसे रिश्ता कैसे रखेंगे?

मैंने एक कहानी अकसर सुनी है जिसमें एक होनेवाले नायक के पिताजी उसे इसलिए जंगल में भेज देते हैं कि उन्होंने उसकी सौतेली मां को नायक के जन्म से पहले कोई वचन दिए थे। नायक पलटकर यह भी नहीं पूछता कि मेरे पैदा होने से पहले, मेरी सहमति के बिना, किसीको दिए आपके वचनों के लिए मैं अपनी ज़िंदगी क्यों बर्बाद करुं, मेरा क्या लेना!? यह तथाकथित महानायक अपने घर में शुरु होनेवाले ज़बरदस्त अन्याय का कोई विरोध नहीं कर पाता, चूं तक नहीं करता। कहते हैं कि कई लोग इस नायक को अन्याय पर न्याय की विजय की प्रेरणा देनेवाले महापुरुष की तरह याद करते हैं, त्यौहार मनाते हैं।

जिधर भी बटन दब जाए, वहीं कॉमेडी दिखाई देती है।

अभी एक फ़िल्म के कुछ दृश्य देखने को मिल गए जो फ़िल्म कम और तार्किकता पर बौख़लाहट ज़्यादा लग रही थी। दिलचस्प यह है कि इन्हीं में से या ऐसे ही कई लोग पहले तर्क/शास्त्रार्थ का ठेका लिए बैठे थे। अब नई टैक्नोलॉजी और नए प्रसार/प्रचार माध्यमों के ज़माने में इनकी तथाकथित तार्किकता और विद्वता ढही जा रही है तो ये कभी तर्क को गाली दे रहे हैं तो कभी नये तर्कों को पुरानी कहानियों में हास्यास्पद ढंग से फ़िट करने की कोशिश में लगे हैं।

‘भारतवर्ष’ नाम के एक सीरियल की आधी क़िस्त भी देखी। इसपर भी बात करेंगे।

-संजय ग्रोवर
15-09-2016


Friday 15 April 2016

फ़ैन : दो मनोरोगी, एक राक्षस दूसरा सुधारक!

हालांकि शाहरुख़ की पिछली फ़िल्मों जोकि काफ़ी समय से बचकाना कहानियों पर आधारित रहीं हैं, की तुलना में यह फ़िल्म एक गंभीर प्रयास दिखाई देती है। मगर यह गंभीरता किसके पक्ष में है, इसके पीछे नीयत क्या है, यह पता लगाने की कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।
सायबर क़ैफ़े चलानेवाला गौरव चानना, फ़िल्मस्टार आर्यन खन्ना का भक्त/फ़ैन है। उसकी नक़ल करके वह कॉलोनी का हीरो कहलाता है। उससे मिलने जाता है और अपेक्षित व्यवहार न मिलने पर उसका दुश्मन हो जाता है। उसे परेशान करना शुरु कर देता है। अंततः मारपीट और लेक्चरबाज़ी....

यशराज बैनर की ही सुपरहिट फ़िल्म ‘डर’ में मनोरोग से संबद्ध विषय के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया था, इस फ़िल्म में भी किया गया है। यहां भी व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझने और सहानुभूति रखनेवाला कोई पहलू या पात्र(जैसे मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक) मौजूद नहीं है। इस तरह की फ़िल्में एक बच्चे की मानसिकता के निर्माण में शामिल अभिभावकों और समाजों को ‘बुरे’या ‘राक्षस’ बच्चों की बुराई या ‘राक्षसत्व’ में लगी उनकी ज़िम्मेदारी से भागने के बहाने उपलब्ध करातीं हैं, इन फ़िल्मों को देखकर लगता है कि कुछ बच्चे स्वयं जन्म से यह तय करके पैदा होते हैं कि कुछ भी हो जाए, हम तो सिर्फ़ चोरी, ठगी, हिंसा और बलात्कार ही करेंगे। जबकि एक असलियत यह भी है जो बच्चे हमें ‘अच्छे’, ‘दैविय’ और ‘स्मार्ट’ लगते हैं, हरक़तें उनमें से भी कई सब तरह की कर रहे होते हैं मगर ज़रा शातिराना, ख़ुशनुमां, सधे हुए और उस्तादों के आज़माए तौर-तरीक़ों के साथ कर रहे होते हैं।

एक फ़िल्मस्टार को महान बताने और बनाने की नीयत/पूर्वाग्रह फ़िल्म की शुरुआत से ही दिखना शुरु हो जाते हैं।

आखि़र इन भक्तनुमां फ़ैनों को इन सब अजीबो-ग़रीब हरक़तों के लिए प्रोत्साहन मिलता कहां से है !? मुझे कुछ नये/पुराने धुंधले-धुंधले से साक्षात्कार याद आते हैं जिनमें अपने फ़ैंस की अजीबो-ग़रीब हरक़तों का पूरी शानो-शौक़त से ज़िक्र किया जाता है, ख़ून से ख़त लिखनेवाली प्रशंसिकाओं के क़िस्से होते हैं। और आजकल जगह-जगह,  तरह-तरह से किए जानेवाले प्रोमोज़ तो सभी देखते हैं, उनके बारे में क्या बताना !

फ़िल्म सारा दोष फ़ैन पर डालती दिखाई देती है, जबकि अतार्किक, ऊल-जुलूल, मनगढंत फ़िल्मों के दीवानों से बहुत ज़्यादा तार्किकता व संवेदना की उम्मीद रखना व्यर्थ है। अगर वे इतने ही जागरुक होते तो ये भी जानते होते कि फ़िल्म में महान दिखना और सचमुच महान होना दो अलग-अलग बातें हैं। यह अलग बात है कि अपने यहां अकसर यह देखने में आ रहा है कि हरक़तें तो मिलती-जुलती होतीं हैं पर इमेजसजग लोग इन्हीं पर श्रेष्ठता या महानता का बैनर लगा लेते हैं और लापरवाह बेचारे राक्षस ठहरा दिए जाते हैं।

हैरानी होती है कि जिस इंडस्ट्री में रफ़ी और किशोर सहगल के गाने गाते हुए काम पाते हैं, आशा भोंसले गीता दत्त को कॉपी करतीं हुई जवान होती हैं, सोनू निगम ‘ट्रिब्यूट टू मोहम्मद रफ़ी’ के नाम से अपने गाने बेचकर पहचान बनाते हैं, किसी विदेशी फ़िल्म की नक़ल पर बनी हिंदी फ़िल्म (पुनर्जन्म के अंधविश्वास पर आधारित) ‘कर्ज़’ की नक़ल पर ‘ओम शांति ओम’ बनती है, किसी विदेशी ही फ़िल्म की नक़ल पर ‘डॉन’ और फिर उसीकी नक़ल पर एक और ‘डॉन’.... बनती है यानि जहां मौलिकता का इतना अकाल है, ऐसी इंडस्ट्री का एक नायक अपने एक ऐसे ठसबुद्धि और भावुक, मरते हुए फ़ैन को मौलिकता के बल पर ‘पहचान’ बनाने की सलाह देता है जो उसके और इंडस्ट्री के पास काम मांगने नहीं, सिर्फ़ एक ट्राफ़ी शेयर करने आया है।

इस तरह की बचकानी स्थितियां फ़िल्म में कई जगह अनायास ही आ गई लगतीं हैं जो ‘छोटे-बड़े’, ‘ऊंचे-नीचे’ बनने-बनाने के पीछे की मानसिकता को स्वत ही उघाड़ जातीं हैं। फ़िल्म कुछ देर और दूरी तक यथार्थ के साथ चलने की कोशिश करती नज़र करती नज़र आती है, मगर जैसे ही नायक अपराधी को ख़ुद पकड़ने की चमत्कारिक (और अहंकार-भरी भी) कोशिशों में ताबड़तोड़ कूदा-फ़ांदी और मारा-तोड़ी में लग जाता है, फ़िल्म पूरी तरह से नायक को भगवान की तरह देखने और दिखाने की अपनी औक़ात पर आ जाती है। जब आर्यन खन्ना अपने फ़ैन चानना से कहता है कि ‘तुम अपनी जगह रहो, मुझे मेरी जगह रहने दो’ तो लगता है कि वह विज्ञान, तक़नीक़ और नये विचारों के फलस्वरुप आ रही वास्तविक समानता से घबराए हुए ‘बड़े लोगों’ के किसी दयनीय गुट का प्रतिनिधित्व कर रहा है। वह ‘छोटों’ से मिलनेवाले सारे फ़ायदे तो ले लेना चाहता है मगर उन्हें उनकी ’जगह’ भी बनाए-दिखाए रखना चाहता है। जब आर्यन खन्ना पुलिस अधिकारी को पूरे अधिकारपूर्वक ढंग से, क़ानून से इतर, अपने निर्देशों का पालन करने के निर्देश देता है और पुलिस जिस तत्परता और ‘विनम्रता’ से उनका पालन करती है, दिखाने और समझने के लिए काफ़ी है कि ‘बड़े’ बनने के क्या ‘फ़ायदे’ हैं, इसके पीछे किस तरह की अहंकारी और अप्रत्यक्ष रुप से शासन करने की मानसिकता होती है और यह मानसिकता सामान्य जनता के दैनिक कामों/चरित्रों और मानवीय सभ्यता को किस तरह बाधित करती और विकृत बनाती है।

स्त्री-संदर्भों में भी यह मानसिकता अनायास ही उघड़ आई लगती है। विदेशी पुलिस अधिकारी आर्यन खन्ना से कोई सवाल पूछता है तो जवाब में आर्यन की सैक्रेटरी बोलना शुरु कर देती है। पुलिस अधिकारी उससे कहता है कि ‘कि क्या आप आर्यन खन्ना हो !? आप क्यों जवाब दे रही हो ?’ इसपर आर्यन पुलिस अधिकारी से कहता है कि ‘आपको स्त्रियों से बात करने की तमीज़ नहीं है ?’ हंसी आती है कि आखि़र यहां स्त्री-संदर्भ कहां से पैदा हो गया !? औसत बुद्धि से भी यह समझने में कोई दिक़्क़त नहीं है कि अगर सैक्रेटरी पुरुष होता तब भी एक साहसी, ईमानदार, निष्पक्ष, अप्रभावित, अ-चमचे अधिकारी को यही कहना चाहिए था। लेकिन हम लोगों को इसकी आदत कहां ? हम चाहें तो पूरी दुनिया को अपने घर में बुलाकर ‘सेवा’ करा लें। अपॉर्च्युनिज़्म, इलीटिज़्म या (दलित-विमर्श की भाषा में) मनुवाद किस तरह हर बदलाव या विचार की लहर या छाती पर सवार होकर उसे अपने नाजायज़ फ़ायदे में बदल देता है या बदलना चाहता है, जाने-अनजाने में फ़िल्म के ऐसे दृश्य बता जाते हैं। फ़िल्म के अन्य दृश्य में स्त्री-संदर्भ में फ़िल्म स्टार की ‘दृष्टि’ और खुलकर सामने आती है जब वह कहता है कि ‘मेरे ही घर में घुसकर कोई मेरी ही रेडवाइन पीकर मेरी ही बीवी से फ़्लर्ट करे और मैं देखता रहूं?’ इस डायलॉग को सुनकर उस्ताद लोगों के पुराने शेर और कहावतें याद आतीं हैं जिनमें शराब के साथ-साथ शबाब यानि स्त्री को भी सामान की तरह देखा और इस्तेमाल किया जाता है। थोड़ी राहत मिलती है जब पत्नी कहती है कि जब तुम्हारे पास वक़्त नहीं है तो दूसरों को मौक़ा क्यों न मिले। वैसे सोचने की बात है कि कोई (मर्द) फ़िल्म स्टार जब दूसरी स्त्रियों से संबंध बनाता है(अगर बनाता है) तो क्या उसके सामने भी ‘पत्नी को वक़्त न मिलने’ जैसी कोई शर्त होती है ? होशियार लोग अपनी पुरानी कबाड़ा सोच को ही कैसे प्रगतिशीलता का बैनर लगाकर पेश कर देते हैं, यहां से देखा/सीखा जा सकता है।     

हालांकि फ़िल्म में कहीं यह विश्लेषित करने की कोशिश नहीं की गई है कि अपने भगवान आर्यन खन्ना की भक्ति में डूबकर भक्त गौरव चानना उसके प्रतिद्वंदी हीरो के साथ जो मारपीट करता है, वह किस तरह सही या ग़लत है, मगर संवैद्यानिक और मानवीय नज़रिए से यह स्पष्टतः ही ग़लत प्रतीत होता है। मगर इसका क्या किया जाए कि अपने यहां प्रचलित सभ्यता और दुनियादारी में किसीके पक्ष में खड़े होते वक़्त ‘अपने’ आदमी का सही-ग़लत नहीं देखा जाता, उसका तो साम-दाम-दंड-भेद(यह जो भी होता हो) से पक्ष ही लिया जाता है। और आर्यन खन्ना तो चानना का सबसे बड़ा ‘अपना’ है। 

वैसे तो जिस गति से समाज में जागरुकता आ रही है, वह दिन दूर नहीं लगता जब लोग यह तथ्य भी जानने लगेंगे कि अगर दीवानावार, भक्तनुमां चाहत अंततः मनोरोग में बदल सकती है तो बड़ा बनने या ऊंचा दिखने की अंतहीन महत्वाकांक्षा या लिप्सा भी कभी भी लोगों पर एकतरफ़ा तानाशाह शासन की मनोविकृति के रुप में सामने आ सकती है। फ़ैन और फ़ैवरिट का मामला एकतरफ़ा कतई नहीं है। दोनों के बीच बहुत योजनाबद्ध ढंग से एक संबंध गढ़ा गया है, यह संबध लगभग भगवान-भक्त, गुरु-शिष्य के जैसा ही संबंध है जिसमें पवित्रता, आज्ञाकारिता, शालीनता और आदर आदि के नाम पर लगभग ग़ुलाम-मालिक़ और पालक-पालतू जैसे घटिया रिश्तों को महिमा-मंडित किया गया है। अब उसके कुछ बुरे पहलू सामने आते हैं तो उसकी ज़िम्मेवारी भी तो लेनी होगी। ज़ाहिर है कि जिन्होंने इस तरह की व्यवस्थाओं के फ़ायदे उठाएं हैं, उन्हें नुकसान के उत्तरदायित्व से बचकर भागना शोभा नहीं देता।

गौरव चानना के रुप में शाहरुख़ ने और निर्देशक के रुप में शर्माजी ने क़ाफ़ी मेहनत की है।


-संजय ग्रोवर
15-04-2016


Saturday 12 March 2016

ओह माय गॉड: कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -  
1, IMDb  

12-03-2016

कांजीलाल मेहता नास्तिक है और चोर बाज़ार में मूर्तियों की दुकान चलाता है। धंधे के लिए झूठ भी बोलता है, बेईमानी भी करता है। बेटे चिंटू को ‘मटकी फोड़ो’ कार्यक्रम से वापस लेने जाता है और वहां बेटे को लोगों के कंधों से उतरता न देखकर ग़ुस्से में माइक उठाकर घोषणा कर देता है कि भगवान कृष्ण स्वयं लोगों के घर आकर दूध-मक्खन खाएंगे। लोग प्रोग्राम छोड़कर घरों को दौड़ जाते हैं। यहीं से कांजीलाल का वहां बैठे बाबा लोगों से पंगा शुरु हो जाता है। बाद में उसे पता चलता है कि भूकंप के हल्के झटकों के बाद चोर बाज़ार में स्थित उसकी दुकान गिर गई है, बाक़ी सब दुकानें सलामत हैं। कांजीलाल को उम्मीद है कि बीमा कंपनी से उसके सारे नुकसान की रिकवरी हो जाएगी मगर मैनेजर कहता है कि कंपनी चोरी, आग, फ्रॉड आदि के लिए क्लेम देती है मगर ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ के लिए नहीं। परेशानियों से हारकर कांजी भगवान पर मुक़दमा डालता है, और तरह-तरह की घटनाओं के साथ फ़िल्म आगे चलती है।

दरअसल फ़िल्म यहीं से ग़लत राह पकड़ लेती है। काल्पनिक भगवान पर मुक़दमा करने से ज़्यादा व्यवहारिक यह होता कि कांजी बीमा कंपनी पर मुक़दमा करता कि वह भूकंप को ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ साबित करके दिखाए। लेकिन बाद में ‘पीके’ और 1953 में बनी ‘नास्तिक’ देखने से समझ में आया कि फ़िल्मों में सही ढंग की नास्तिकता कहीं दिखाई ही नहीं जाती। इस फ़िल्म में भी यही किया गया है। कांजी के अच्छे-ख़ासे तर्कों और प्रयत्नों के बावज़ूद उसे सफ़लता नहीं मिलती और अंततः तथाकथित भगवान(!) ही उसकी मदद को प्रकट होते हैं। साहसी और तार्किक कांजीलाल कथित भगवान के बचकाने तर्कों के आगे जिस तरह समर्पण कर देता है, देखकर शर्म आने लगती है। भगवान को सोफ़े पर बैठे-बैठे बत्ती बुझाते-जलाते दिखाकर फ़िल्म में चमत्कार और अंधविश्वास को भी बढ़ावा दे दिया गया है। वक़ील हनीफ क़ुरैशी भी अल्लाह/भगवान के होने, न होने को लेकर गोलमोल भाषा में जवाब देता है। तथाकथित भगवान भी बाद की आधी फ़िल्म में वही गोलमोल भाषा बोलता है जो प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लोगों को साकार और निराकार, हाज़िर और ग़ायब में फ़ंसाए रखनेवाले ज़्यादातर लोग बोलते पाए जाते हैं।

सबसे अजीब बात यह है कि चूंकि कांजी का मुक़दमा जीतने में कुछ धर्मग्रंथों की कुछ पंक्तियां काम आतीं हैं, इसके बहाने तमाम धार्मिक ग्रंथों को प्रासंगिक और प्रामाणिक साबित करने की कोशिश की गई है। समझने की बात यह है कि चूंकि धार्मिक और बाबा लोग धर्मग्रंथों को भगवान का लिखा बताते हैं, इस चक्कर में वे अपने ही जाल में फ़ंस जाते हैं और धर्मग्रंथों की चंद पंक्तियों के सहारे कांजीलाल आसानी से सिद्ध कर देता है कि भूकंप ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ है और जीत जाता है। लेकिन मुक़दमा जीतने के लिए बनाई गई रणनीति के आधार पर साथ में यह सिद्व करने की कोशिश कि भगवान है और धर्मग्रंथों में सारी समस्यायों के हल हैं, नितांत हास्यास्पद है। तार्किक बात यह है कि जो व्यक्ति धर्मग्रंथों पर अंधाविश्वास न करता हो उसके सामने ईश्वर को साबित करने का कोई प्रामाणिक तरीक़ा संभव नहीं है।

नास्तिकता पर बनी ज़्यादातर हिंदी फ़िल्मों में नास्तिकता का ग़लत काँसेप्ट पेश किया जाता है। उसे या तो बेईमानी और कमज़ोरी की तरह पेश किया जाता है या फ़िर उसका मतलब भगवान के अस्तित्व को मानते हुए उसको ग़ाली देना या उससे लड़ना बताया जाता है या सिर्फ़ मूर्ति और कुछ कर्मकांडों और अंधविश्वासों के विरोध को नास्तिकता कह दिया जाता है। जबकि नास्तिकता का सही मतलब है आदमी का अपनी बुद्धि और काम में विश्वास यानि आत्मविश्वास और किसी भी अव्यवहारिक, अवास्तविक रहस्यमय ऐसी शक्ति से इंकार जो किन्हीं चालाक़ मान्यताओं के अनुसार उसके जीवन और कार्यों को पूरी तरह नियंत्रित करती है। इस फ़िल्म में नास्तिकता की शुरुआत तो ठीक-ठाक ढंग से होती है लेकिन आधी फ़िल्म होते-होते उसे फिर उसी रास्ते पर ठेल दिया जाता है जहां पहुंचकर लोग प्रगतिशीलता के नाम पर वही सब हरक़तें करने लगते हैं जिनके लिए वे दूसरों को डांट-फटकार कर ख़ुदको आधुनिक समझ रहे होते हैं। 

लेकिन इसीसे यह भी समझ में आता है कि ऐसी फ़िल्मों में अच्छे-ख़ासे चलते तर्कों के बीच एकाएक अजीबो-ग़रीब और असंगत घटनाएं और मोड़ क्यों आ जाते हैं।

और यह भी कि तथाकथित प्रगतिशील अकसर बेसिर-पैर की बातें और हरक़तें करते क्यों पाए जाते हैं।

और जहां तथाकथित प्रगतिशील इस कदर विरोधाभासों से भरे हों वहां कट्टरपंथिओं से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है ?

अगर भगवान के नाम पर मंदिर-मस्ज़िद के ज़रिए पैसा लेना-कमाना ग़लत है तो अंधविश्वास हटाने के नाम पर फ़िल्म बनाकर और उसमें गोलमोल बातें करके लोगों को बार-बार एक नये रहस्य के हवाले कर देना कैसे उससे अलग है ?

ऐसी फ़िल्में भी कमाई तो अ़च्छी-ख़ासी ही कर रहीं हैं मगर अंधविश्वास हटाने के नाम पर नया क्या बताती हैं !?


-संजय ग्रोवर
13-03-2016

Saturday 27 February 2016

अलीगढ़ : हाज़िर तन्हाई और ग़ायब ज़हर

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -  
1, IMDb  

आदमी ने दो दुनिया बनाईं-एक दिखाने की, एक छिपाने की।
और तरह-तरह की परेशानियों में पड़ गया।
अब न वह जी पाता है न किसीको जीने देता है।
अब वह खिड़कियों में झांकता फिरता है, दीवारों से कान लगाए दूसरों की वे बातें जानना चाहता है जो उसे घर बैठे मालूम हो सकतीं हैं।
अपना काम छोड़कर वह दूसरों के रोशनदान में छिपा है, चूहे की तरह पड़ोसी के घर में बिल बनाए है।
उसे मालूम नहीं कि इसी बिल का दूसरा सिरा उसके अपने घर में खुलता है।

‘अलीगढ़‘ उसी आदमी की कहानी है।

न यह आदमी ठीक से प्रगतिशील है न सही मायने में कट्टरपंथी। यह वह आदमी है जिसके पास आत्मविश्वास नाम की कोई चीज़ नहीं है, जिसके पास अपनी कोई सोच नहीं है, जो दूसरों की बनाई पटरियों पर रेल की तरह भाग रहा है। इस रेल में कितने डिब्बे हों, कितनी इसकी रफ़्तार हो, किस-किस स्टेशन पर यह रुके ; सब कुछ दूसरे तय करते हैं। कोई पुरानी क़िताब, कोई लाशों से भी गए-बीते पुरखे, कोई तथाकथित महापुरुष, कोई शर्मनाक मुहावरे, कोई लोककथा, कोई दिग्भ्रमित करनेवाली कविता....। और यह समझता है कि मै अपनी मर्ज़ी से जीता हूं।
यह वह आदमी है जो अपनी ही जड़ों में कीड़ों की तरह लगा है और समाधान के लिए हवा सूंघ रहा है, आसमान को ताक रहा है।

प्रोफ़ेसर सिरस एक अलग क़िस्म का आदमी लगता है। है तो बिलकुल आदमी जैसा मगर आदमी जब आदमी को देखता है तो बीच में तरह-तरह की धारणाएं, महापुरुष, आयकन, मान्यताएं, परिभाषाएं, लेखक, चिंतक और विद्वान आ जाते हैं। नज़र धुंधला जाती है और साफ़-साफ़ कुछ दिखाई नहीं देता। धुंधली नज़र क़िस्म-क़िस्म की दुर्घटनाओं का कारण बन जाती है। प्रोफ़ेसर ठीक-ठाक आदमी है, मगर उनको ठीक नहीं लगता जो आदमी को अपनी तरह से, अपनी सुविधानुसार गढ़ना चाहते हैं। वे कमज़ोर लोग हैं मगर उनका अहंकार बहुत मजबूत है, उनके आस-पास उन्हीेंके जैसे लोग हैं, इस वजह से ये सब आपस में मिलकर ख़ुदको ताक़तवर समझने लगते हैं। इन्हीं की वजह से प्रोफ़ेसर अलग क़िस्म का आदमी लगता है वरना वह बिलकुल सामान्य आदमी है ; बल्कि कईयों से कुछ बेहतर ही लगता है।

प्रोफ़ेसर की तन्हाई नितांत मौलिक है। वह अपना वक़्त किसी तयशुदा ढंग से नहीं बिताता। उसके पास तन्हाई की बहुत बड़ी मात्रा है क्योंकि उसके सब्जेक्ट को पढ़नेवाले विद्यार्थी बहुत कम हैं और वह किसीके जैसा नहीं, बिलकुल अपने जैसा है। यह बिलकुल सामान्य बात है। दुनिया में सभी लोग अपने जैसे हो जाएंगे अगर किसीके जैसा बनने/बनाने की तानाशाही से उन्हें किसी तरह मुक्त रखा जाए। एक छोटी-सी संभावना यह भी है कि प्रोफ़ेसर एब्नॉर्मल हो, लेकिन ठीक से इसका पता भी तब ही लग सकता है जब सभी बच्चों को नॉर्मल ढंग से बड़ा होने दिया जाए, स्वतंत्रता से फलने-फूलने दिया जाए। फ़िलहाल तो भीड़ को नॉर्मल और व्यक्ति को एब्नॉर्मल मान लिया जाता है।

प्रोफ़ेसर भीड़ का हिस्सा नहीं लगता। उसे एक ऐसे व्यक्ति से प्रेम है (या कहिए कि शारीरिक आकर्षण है, ज़रुरत है) जिससे प्रेम करना भीड़ के लिए किसी भी तरह से आसान नहीं है। फ़िल्म के गिने-चुने स्त्री-पात्रों में से एक (वक़ील) एक जायज़-सा लगनेवाला सवाल उठाती है कि एक पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर का एक रिक्शेवाले से प्रेम कैसे संभव है ? लेकिन दुनिया के किसी भी तरह के प्रेम बारे में दूसरे कैसे तय कर सकते हैं कि प्रेम असली है या नक़ली है। यह तो प्रेम करनेवालों पर ही छोड़ना पड़ता है। 

जैसा कि होता है ताक़तवर-से लगनेवाले कमज़ोर लोग प्रोफ़ेसर की सामान्यता से घबरा जाते हैं। वे छिपकली की तरह उसपर नज़र रखते हैं और मौक़ा देखकर डायनासोर की तरह उसपर टूट पड़ते हैं। तन्हा प्रोफ़ेसर और बेबस नज़र आता है।

मैं सोचता हूं कि अगर प्रोफ़ेसर कोई गुंडा टाइप आदमी होता, कोई दबंग होता, कोई शातिर होता तो क्या यही लोग उसके लिए तालियां न बजा रहे होते ? यह मैं इसलिए भी कह रहा हूं कि मैंने अलीगढ़ का पड़ोस भी देखा है। वहां लोग पहलवानी करते थे, अखाड़े चलाते थे और ‘शौक़’ फ़रमाते थे। किसीकी हिम्मत नहीं होती थी कि आंख उठाकर उन्हें देखे। वे अपने ‘क़रतबों’ के चरचे राजा-महाराजाओं की वीरता की तरह करते थे और हम रास्ते से निकलते भी डरते थे। डरते थे क्योंकि हमें इनमें से किसी भी तरह का शौक़ नहीं था। न तो हमें यह प्रेम के रुप में चाहिए था न तानाशाही के ज़रिए हासिल करने की तमन्ना थी। ऐसी किसी संबंधलीला में न तो हमें पुरुष का रोल चाहिए था न स्त्री का।

प्रोफ़ेसर भी अगर दादा होता तो यह कहानी किसी ‘अजीब’ आदमी की कहानी होती या किसी गॉडफ़ादर की !? फिर शायद प्रोफ़ेसर उस दोमुंही दुनिया का ऊपरी हिस्सा होता। वही दुनिया जिसमें एक शानदार स्टूडियो में एक शानदार टेबल के पीछे एक शानदार आदमी बैठा है। वह कोई प्रेज़ेंटर हो सकता है, दुकानदार हो सकता है, प्रोफ़ेसर हो सकता है, खिलाड़ी हो सकता है, अभिनेता हो सकता है, एंकर हो सकता है, न्यूज़रीडर हो सकता है, उद्योगपति हो सकता है.....मगर जिसका सिर्फ़ ऊपर का हिस्सा आपको दिखाई देता है-नहाया-धोया, टाई-कोट पहना या लिपस्टिक-पाउडर लगा हिस्सा.....क्योंकि बाक़ी का हिस्सा शानदार टेबल के नीचे है जहां आपकी नज़र नहीं पहुंच सकती। क्योंकि जो ज़हर है वो हमेशा ही ग़ायब रहने के पूरे प्रबंध रखता है। निराकार बदमाश है, वह आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर ज़हरमार करता है, वह दूसरे के ज़हन में घुसकर छोटे-बड़े झगड़ो-दंगो का माहौल निर्मित करता है। 

लगातार नाक फुलानेवाले उनके ख़लचरित्र देखने के बाद मनोज बाजपेई को एक कभी सामान्य-शांत तो कभी ज़रा-सा विचलित, प्रोफ़ेसर की भूमिका में देखना सुखद है। उन्होंने मेहनत की है और वह रंग भी लाई है। पत्रकार दीपू की भूमिका को राजकुमार राव ने अच्छा निभाया है। वक़ील के रुप में आशीष विद्यार्थी और (महिला अभिनेत्री) भी यथार्थ के काफ़ी क़रीब लगे हैं। सेट-डिज़ाइन/लोकेशन, वस्त्र-डिज़ाइन, संवाद, निर्देशन....सभी यथार्थ के काफ़ी क़रीब हैं।

जिन लोगों में इंसान को समझने की और इंसानियत को बचाने की चाह वाक़ई मौजूद है, उन्हें इस फ़िल्म को ज़रुर देखना चाहिए।

-संजय ग्रोवर

27-02-2016



Friday 12 February 2016

हिंदी फिल्मों की गोलमोल नास्तिकता और उसपर टीवी की गोलमोल बहसें


4.17 मिनट का यह वीडियो है। फ़ेसबुक पर कुछ लोगों ने इस सलाह के साथ लगाया कि इसे देखकर आपकी आंखें खुल जाएंगी। मैंने, देखा तो मुझे इसमें कोई ख़ास या नई बात नज़र नहीं आई। मैंने पूरा वीडियो ढूंढने की कोशिश की, क़रीब आधा घंटा लगाया, नहीं मिला। एक अन्य वीडियो मिला जो तकरीबन दस मिनट का था।

बहरहाल, कहीं पूरा वीडियो मिल गया और उसमें कुछ अलग निष्कर्ष निकलता दिखाई दिया तो हम दोबारा बात कर लेंगे। अभी इसीपर करते हैं। 

यहां यह समझना मुश्क़िल है कि जावेद अख़्तर क्यों यह सफ़ाई दे रहे हैं कि ‘मैंने तो हमेशा कहा आयम एन अथीस्ट.....’, मगर यह स्पष्ट है कि बात पीके की चल रही है और फ़िल्म के निर्देशक राजू हिरानी भी वहीं कुर्सी डाले बैठे हैं। सोचने की बात है कि इससे पहले कब किसीको यह सफ़ाई देनी पड़ती थी कि वह नास्तिक है। यह माहौल नास्तिकता के खि़लाफ़ माना जाए कि उसके पक्ष में माना जाए !?

यहां जावेद अख़्तर सहिष्णुता की बात करते हुए 1975 में बनी अपनी ‘शोले’ के उस दृश्य का हवाला दे रहे हैं कि किस तरह नायक एक मंदिर में भगवान की मूर्ति के पीछे छुपकर भगवान बनकर बोल रहा है। वे कहते हैं कि शायद आज मैं इस दृश्य को न लिखता। अब सोचने की बात यह है कि क्या ‘शोले’ अंधविश्वास के खि़लाफ़ और नास्तिकता के पक्ष में बनी कोई फ़िल्म थी !? क़तई नहीं। यह फ़िल्म बदले पर आधारित, नाटकीय दृश्यों से भरी एक साधारण फ़िल्म थी। इसे भी छोड़िए। क्या नायक इस दृश्य में अंधविश्वास हटाने की कोशिश कर रहा है ? क्या वह भगवान का न होना साबित कर रहा है ? बिलकुल भी नहीं। वह तो उसके होने के अंधविश्वास का लाभ उठा रहा है। यह लाभ उसे मिल रहा है यह इसीसे पता चलता है कि नायिका तुरंत इस पर विश्वास कर लेती है। यह दृश्य अंधविश्वास और भगवान के होने के पक्ष में है, उसके खि़लाफ़ नहीं।  इसपर कोई भक्त क्यों ऐतराज़ करेगा ? वीडियो के इस टुकड़े से तो यही समझ में आता है कि वे ग़लत उदाहरण दे रहे हैं। वे और भी फ़िल्मों का उदाहरण देते हैं जिनमें से किसीमें कोई पात्र भगवान की मूर्ति उठाकर फ़ेंक देता है। ऐसी तो बहुत फ़िल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन की ‘नास्तिक’, 1954 में बनी ‘नास्तिक’, सुनील दत्त अभिनीत ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ ऐसी ही, या ऐसे ही कुछ दृश्यों वाली फ़िल्में हैं। मुद्दे की असली बात यह है कि ऐसी किसी फ़िल्म में भगवान के अस्तित्व से इंकार नहीं किया गया। 


जावेद अख़्तर किस तरह के नास्तिक हैं यह तो वही बताएंगे, लेकिन इस तरह की जितनी फ़िल्में बनी हैं, वे भगवान के होने की पुष्टि करतीं हैं, वे किसीकी आंखें नहीं खोलती बल्कि जागते हुए लोगों को भी सुलाने की कोशिश करती लगतीं हैं। आंखें क्या वे तो खुले हुए दिमाग़ों को भी बंद कर देतीं हैं। जावेद यहां कह रहे हैं कि वे भगवान में विश्वास नहीं करते जबकि उन्हींके बराबर में बैठे राजू हिरानी कह रहे हैं कि फ़िल्म दो तरह के भगवानों के बारे में बताती है-एक, जिसे हमने बनाया है ; दूसरा, जिसने हमें बनाया है। और जैसाकि फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि दूसरा वाला भगवान असली है। अब जावेद अख़्तर का इसपर क्या मानना है यह तो, अगर उन्होंने इसपर कुछ कहा है तो, बाक़ी वीडियो से ही पता लग सकता है। मेरी समझ में, जावेद अख़्तर की नास्तिकता(अगर वे नास्तिकता का मतलब भगवान के वजूद से इंकार करना मानते हैं) और राजू हिरानी के अंधविश्वास-विरोध का अंतर तो यहीं साफ़ हो जाता है। 


पहले तो इस देश के ज़िम्मेदार प्रगतिशीलों और अंधविश्वास-विरोधियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनके नास्तिकता के अर्थ क्या हैं-भगवान को न मानना या मूर्ति और कर्मकांड को न मानना। अब जिन तालिबान की मूढ़ता का हवाला देकर जावेद प्रगतिशीलता का मतलब समझाने की कोशिश कर रहे हैं, मूर्तिपूजा तो वे भी नहीं करते। इससे उनको हासिल क्या हुआ ? असली समस्या सिर्फ़ मूर्तिपूजा नहीं है, असली समस्या  हैं किसी निराकार/ग़ायब/भगवान/ख़ुदा/शक्ति/गॉड के होने का समर्थन या फिर इसपर चुप्पी या गोलमोल बातें।



12-02-2016

असली समस्याएं हैं इस तरह की मान्यताएं कि कोई अदृश्य शक्ति या शक्तियां इस दुनिया को चलातीं हैं जो कि इंसान से कई गुना ज़्यादा ताक़तवर हैं, इंसान की उस/उनके सामने कोई औक़ात नहीं है, वह बेबस, मजबूर और कमज़ोर है, वह उनके हाथों की कठपुतली है, उसके बस का कुछ नहीं है जब तक कि वह उन तथाकथित शक्तिओं के आगे सिर न झुकाए, उनका अहसान न माने, उन अहसानों का बदला न चुकाए, उन तथाकथित शक्तिओं के होने को बेशर्त स्वीकार न कर ले। मूर्तियां, कर्मकांड, संस्कार, कलंडर, भजन, फ़िल्में, लेख आदि तो उन तथाकथित शक्तिओं के विज्ञापन या रीमाइंडर्स की तरह हैं। ‘भगवान सर्वशक्तिमान है’, ‘वह सर्वत्रविद्यमान है’, ‘उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘उसके आगे किसीका बस नहीं चलता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’, ‘जाको राखे साईयां’,.....जैसे प्रचलित और आम लोगों में स्वीकृत कहावतें और मुहावरे ही बताते हैं कि समस्या मूर्ति तक सीमित नहीं है। दूरदराज़ गांवों में ओझाओं द्वारा औरतों को उल्टा लटकाकर, आग में मिर्ची झोंककर उनका तथाकथित ‘भूत’ उतारना हो या ज्योतिषी द्वारा किसीका हाथ देखकर भविष्य बताते हुए पैसा झाड़ लेना हो, इन सबकी जड़ में मूर्ति नहीं बल्कि कुछ निराकार/ग़ायब/अदृश्य शक्तिओं पर आदमी का विश्वास है। उन तथाकथित निराकार शक्तियों पर स्पष्ट बातचीत के बिना हम काला जादू, मिडिलमैन और बाबावाद का कुछ कर पायेंगे, यह एक बचकाना ख़्याल ही लगता है। कट्टरपंथिओं को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप ऐसी या वैसी, कैसी शक्तियों को मानते हैं ; उनके लिए इतना काफ़ी है कि आप किसी अमानवीय यानि मानवता से इतर/ऊपर किसी रहस्यमय शक्ति में विश्वास करते हैं। तालिबान भी किसी मूर्ति की वजह से नहीं बल्कि किसी निराकार शक्ति में विश्वास की वजह से ही सब कुछ कर रहे हैं।

जावेद 1975 और आज के फ़र्क़ की बात कर रहे हैं। मेरे पास यह नापने का कोई तरीक़ा नहीं है कि आजकल असहिष्णुता की मात्रा क्या है। लेकिन मैं कह सकता हूं कि असहिष्णुता कि जड़ सिर्फ़ वहां नहीं है, जहां तयशुदा नतीजों के साथ ढूंढी जा रही है। कर्मकांडों और अंधविश्वासों के स्पष्ट विरोधी कहे जानेवाले कबीर की लाश में से फूल 1975 से पहले ही निकाले जा चुके थे। बिना शिक्षा दिए दक्षिणा में ‘शिष्य’ एकलव्य का अंगूठा काट लेनेवाले ‘गुरु’ द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार 1975 से पहले से चल रहे हैं। बाबरी मस्ज़िद कांड और दुग्धपान कांड के वक़्त सहिष्णुता थी या असहिष्णुता, कैसे पता लगाया जाए ? ‘जय संतोषी मां’ भी 1974-75 के आसपास ही सुपरहिट हो चुकी थी।

हालांकि उस वक़्त की स्टंट और कमर्शियल फ़िल्मों को हर समझदार दर्शक एक जैसी गंभीरता से लेता होगा, लगता तो नहीं है। फिर भी बात आई है तो ठीक से कर ही लेनी चाहिए कि मूर्ति के साथ भक्तों को इस तरह बातचीत करते शायद ही किसीने देखा होगा जैसा ‘शोले’ व अन्य फ़िल्मों में होता है। वे लोग भजन वग़ैरह गाते हैं, प्रसाद इत्यादि चढ़ाते हैं पर तेज़ आवाज़ में इस तरह बातचीत....! कुछ फ़िल्मों में तथाकथित नास्तिक नायक मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति से लड़ता है कि ‘मैं तुझे नहीं मानता, नहीं मानूंगा.....’ आदि-आदि। नास्तिकता का यह कांसेप्ट सिरे से ग़लत है। जो भगवान के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता वह उससे लड़ने क्यों जाएगा !? यह तो फ़िल्मी नास्तिकता हुई। यहां यह ज़िक्र करना ज़रुरी है कि मैं 4-5 साल से यूट्यूब पर खोज रहा हूं, मुझे असली नास्तिकता पर आज तक न तो एक भी हिंदी गीत मिला है न एक भी हिंदी फ़िल्म। मेरी खोज में कमी हो सकती है पर यह अभी जारी है।  

यह अनुमान लगाना भी अजीब लगता है कि शोले का वह दृश्य आज स्वीकृत न हो पाता। ‘पीके’ 2015 की रिलीज़ है। 2012 में ‘ओह माय गॉड’ रिलीज़ हुई थी जिसमें नास्तिक शब्द का ख़ुला इस्तेमाल है और परेश रावल मूर्तियों और बाबाओं के साथ कई बार, कई तरह की छेड़खानियां करते हैं।। ‘पीकू’ जैसी फ़िल्म भी आजकल में ही रिलीज़ हुई है जिसमें एक बाप अपनी बेटी के सामने उसके सैक्स-संबंधों की चर्चा करता है। ‘तेरे बिन लादेन’ नाम की फ़िल्म का अगला भाग तैयार है। जैसे बोल्ड विषयों पर और बोल्ड संवादों के साथ आजकल फ़िल्में बन रहीं हैं, 1975 में सोचना भी मुश्क़िल रहा होगा। और मैं यह क़तई नहीं कह रहा कि इसका श्रेय किसी सरकार या विचारधारा को जाता है। मेरी सीमित समझ के अनुसार इसका श्रेय टैक्नोलॉजी को जाता है जिसने इंटरनेट, वाई-फ़ाई, स्मार्टफ़ोन, लैपटॉप जैसे माध्यम और उपकरण देकर इंसान को इंसान के क़रीब आने, नये विचार बांटने और एक-दूसरे की संस्कृतियों को जानने में मदद की है, उसकी सोच-समझ के दायरे को बड़ा कर दिया है।

जावेद यहां यह भी कह रहे हैं कि आपको तालिबान जैसा क्यों बनना चाहिए, क्यों नहीं आप उन्हें अपने जैसा बनाएं। लेकिन भारत की तथाकथित उदारवादी या प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़ी संस्थाएं/पार्टियां क्यों नहीं आर एस एस/मुस्लिम लीग को अपने जैसा बना पाईं ? क्या इसलिए कि उनमें बस उतना ही अंतर है जितना कि साकार और निराकार या ग़ायब और हाज़िर में होता है ?


यानि कि न के बराबर !  

17-02-2016

-संजय ग्रोवर

(इस संदर्भ में ये लेख भी प्रासंगिक हैं- पहलादूसरा)

(‘ओह माई गॉड’ की समीक्षा और नास्तिकता पर बनी कुछ अन्य हिंदी फ़िल्मों पर बात जल्दी ही)



Wednesday 6 January 2016

तारा, द जर्नी ऑफ़ लव एंड पैशन: उसे अब मर्द नहीं चाहिए

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -  1, IMDb  2. Wikipedia
(विकीपीडिया पर इस फ़िल्म के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है)



06-01-2016
तारा अपने पति व अन्य परिवारियों के साथ गांव में शराब बनाती है। ख़ानदानी रईस और अय्याश पाटिल भी वहीं से शराब ख़रीदता है। उसकी पत्नी पुलिस से शिकायत करती है और पुलिस तारा के पति बल्लू और सुमि के पति भीमा को गिरफ़्तार कर लेती है।

अंततः तारा रात में शराब बनाकर बेचने का फ़ैसला करती है। बबन्या की नज़र कबसे तारा पर है। इधर सुमि के ससुर की नज़र सुमि पर है। वह भी जब-तब इसके लिए प्रयास करता रहता है। सभी तरह की परेशानियों के बीच तारा, जब-तब लोगों की भी मदद करती रहती है और आगे चलकर घरके मर्दों को भी हौसला बंधाती है, उन्हें रास्ता दिखाती है।

तमाम घटनाओं और संघर्षों के बाद वह दिन आनेवाला है जब तारा का पति जेल से छूटनेवाला है और वह मां बननेवाली है। बबन्या जेल से बाहर आए बल्लू को भड़का देता है कि बच्चा उसका नहीं है। वह भड़क जाता है। पंचायत तारा को गांव छोड़ने का हुक़्म देती है।

कहानी आगे चलती है।

तारा के रुप में अभिनेत्री रेखा राना शुरु के कुछ दृश्यों में कच्ची-कच्ची सी लगतीं हैं लेकिन कहानी आगे बढने के साथ-साथ वे आश्चर्यजनक रुप से परिपक्व अभिनेत्री होती दिखाई देतीं हैं। थोड़ी-ही देर में वे पूरी फ़िल्म को संभाल लेती हैं। अन्य कलाकारों ने भी ठीक-ठाक अभिनय किया है। बबन्या के रुप में रोहित राज कुछ ओवर ऐक्टिंग करते लगते हैं।

फ़िल्म में तीन-चार गीत भी हैं, जो खटकते नहीं हैं और इनकी धुनें, संगीत और शब्द भी अच्छे हैं। फ़िल्म का एक गीत ‘ईश्वरा’ ‘लगान’ के एक गीत ‘ओ पालनहारे’ की नक़ल लगता है, मगर शब्द और धुन मुझे बेहतर लगे।

फ़िल्म 
में कुछ बातें खटकती भी हैं। लगता है कि फ़िल्म किसी चालू प्रतीकात्मकता का शिकार तो नहीं हो गई। विलेन बबन्या मुर्गी काटता है और सुअर पालता है। तारा की ज़िंदगी में उसके पति के बाद आनेवाले दूसरे अच्छे मर्द का नाम किसना है, वह बांसुरी बजाता है और साहित्य पढ़ता है। और अंत में ‘दाग़ धोने’ की घटना तो बिलकुल ‘अग्निपरीक्षा’ को ही जस्टीफ़ाई करती लगती है। इस सबके बावजूद फ़िल्म देखने लायक है।

फ़िल्म से कुछ डायलॉग-
  • फिर जब मेरा आदमी चल बसा, मेरा दर्द भी उसके साथ चल बसा।
  • मेरी ज़िंदगी में जब मर्द आया तो दुख आया। मर्द चला गया तो दुख भी चला गया। अब तो लगता है कि ना ही हम शादी करते ना ही दुखी होते।
  • तारा, मैं अभी भी औरत ही हूं और अभी भी जी रही हूं, अपनी मेहनत से कमाकर खा रही हूं। क्या तुम्हे ऐसा लगता है कि मैं किसी पर बोझ हूं ?
  • अगर औरत चाहे तो किसी भी मर्द के बिना इज़्ज़त से जी सकती है।

इन सभी संवादों को बोलने वाली ‘अम्मा’ का अभिनय भी अच्छा है।

-संजय ग्रोवर
07-01-2016