(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Tuesday, 28 July 2020

हिंदी फ़िल्मों के कमज़ोर नायक


वो चाहे कोई देशभक्त की इमेज वाला नायक हो चाहे क्रुद्ध युवा या हीमैन, मुझे हैरानी होती कि जब भी किसी फ़िल्म में किसी लड़की, बहन या बेटी की शादी की बात चलती और दहेज का प्रसंग आता तो हीरो उधार लेकर या डाका डालकर या भीख मांगकर लड़की की शादी धूमधाम से करने की बात करता.

मुझे कभी समझ में नहीं आता कि यह आदमी यह बात क्यों नहीं करता कि हम समाज से इस रस्म को ही ख़त्म कर देंगे ?

यह पूरा समाज चार लोगों के समाज से इतना डरता क्यों है ? डरता है तो ऐसे डरपोक लोगों में हीरो कहलवाने की इतनी हवस क्यों है ?

क्या इन लोगों को नहीं मालूम कि इन गंदी रस्मों का असर कितने लोगों के जीवन पर पड़ता है ? 
(क्रमश)


Monday, 8 October 2018

गड्ढे में ‘मंटो’

कृश्न चंदर की एक कहानी थी ‘गड्ढा’। एक आदमी ऐसे गहरे गड्ढे में गिर जाता हैं जहां से दूसरों की मदद के बिना निकलना संभव नहीं है। लोग आते हैं, तरह-तरह की बातें करते हैं, अपना टाइम पास करते हैं, मनोरंजन करते हैं, सुबह से शाम हो जाती है पर कोई उसे गड्ढे से निकालने का नाम तक नहीं लेता। हद तो तब हो जाती है जब एक आदमी अपने बच्चे को उस गड़ढे में केला फेंकने के लिए कहता है, मुझे कहानी पूरी तो याद नहीं है, पर शायद पढ़ते वक़्त मैंने भी सोचा था कि सुबह से शाम तक कम-अज़-कम एक तो भला आदमी आया। अब शायद कहानी किसी सकारात्मक मोड़ पर जाकर ख़त्म होगी। लेकिन कहां, सुबह से शाम तक गड़ढे में अकेले, मदद के लिए पुकारता असहाय आदमी बदहवासी में कांपते हाथों से कैसे केला छीलता है, कैसे किसी पिंजरे में फंसे चूहे को मिले उसी सूखी रोटी के टुकड़े की तरह खाता है जिसके एवज में वह फंस गया है, अपने बच्चे को यही सब दिखाके ‘ऐंटरटेन’ करने के लिए उस आदमी ने केला फिंकवाया है। जितना मुझे याद है, कुछ लोग गड़ढे में गिरे आदमी का इंटरव्यू भी ले के चले जाते हैं, मगर उसके लाख पुकारने के बावजूद उसे निकालते नहीं हैं। आगे की कहानी में एक-दो पंक्तियों में यह भी जोड़ा जा सकता है कि कुछ लोग गड़ढे में ही शूटिंग करके उसपर फ़िल्म बनाकर, उस आदमी को वहीं छोड़कर, पुरस्कार लेने चले जाते हैं।  

आखि़र ऐसी क्या समस्या है कि ज़माना कोई भी हो, मंटो, ग़ालिब, कबीर हमेशा गड्ढे में ही रहते हैं, मगर उनके भक्त मालामाल हो जाते हैं ? मंटो का ज़माना आज से कोई पांच सौ साल पहले का ज़माना नहीं था, बस अभी-अभी, 1947 के आस-पास की ही तो बात है। अभी-अभी, एक संजीदा कहे-समझे जानेवाले चैनल पर मैंने देखा, कुछ किशोर फ़िल्म के डायलॉग फ़िल्म के ही अंदाज़ में बोल रहे थे, दो एक सवाल भी उन्होंने पूछे, मगर सभी की दिलचस्पी डायलॉगबाज़ी में ज़्यादा लग रही थी। मुझे ‘शोले’ के ‘कितने आदमी थे’ और ‘दीवार’ के ‘मेरे पास मां है’ का अंजाम याद आ गया और मैं डरा कि कहीं मंटो भी मनोरंजक ‘गब्बरसिंह’ में तब्दील होकर न रह जाएं !

दुनिया कितनी भी बदल जाए पर क्यों मंटो जैसे लोगों के लिए वक़्त कभी नहीं बदलता ? दिलचस्प है कि ख़ुद मंटो जैसे लोग अपनी सारी ज़िंदगी ऐसी ही कोशिशों में ख़राब कर देते हैं कि आदमी और ज़िंदगी थोड़े-से तो बदलें, ज़रा तो संभल जाएं कि उसमें उन जैसे आदमी, सचपसंद लोगों के लिए भी ज़रा-सी जगह बन जाए। पर यही नहीं हो पाता। जैसे किसी तथाकथित महापुरुष के जाने के बाद उसके स्वभाव से बिलकुल उल्टे लोग उसकी मूर्ति लगाकर, मंदिर बनाकर पैसा कमाते हैं, मंटो और ग़ालिब भी कहीं उसी काम तो नहीं आ जाते हैं !

एक बात तो यह समझ में आती है कि मंटो (जैसा फ़िल्मों में देखा, क़िताबों में पढ़ा) जैसे लोग (यथासंभव) सच को जी रहे होते हैं मगर उनके आस-पास के लोगों को सच के अभिनय में, इमेज में ज़्यादा फ़ायदा नज़र आता है। उनमें भीड़ के, चले आ रहे, होते आ रहे के खि़लाफ़ जाने का वह साहस भी नहीं होता जैसा मंटो जैसे लोगों में होता है। डरे हुए लोग धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष, भाजपा और कांग्रेस आदि में से अपना चुनाव कर लेते हैं।

(जारी)

-संजय ग्रोवर
08-10-2018