(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Saturday 16 May 2015

पीकू: क़ब्ज़ से क़ब्ज़ तक!

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं-
IMDb
Wikipedia


हिंदी फ़िल्म इण्डस्ट्री की बरसों से रुकी क़ब्ज़ एकाएक ख़ुल गई है। लगता है जैसे कोई बांध ढह गया हो और पानी के साथ तरह-तरह के पदार्थ---ठोस, द्रव्य और ग़ैसें निकलकर इधर-उधर या आपस में टकरा रहे हों। हीरोइनें अब हीरोइनों की तरह नहीं चलतीं, नाचतीं या बोलतीं, फ़िल्म के पात्र की तरह हंसतीं-रोतीं हैं। गांव, गांव जैसा लगता है। आगरा बिलकुल आगरा जैसा और हैदराबाद, हैदराबाद की तरह दिखता है। विषय भी नये से नये उठाए जा रहे हैं। हालांकि उठाईगिरी शब्द भी उठाने से ही बना लगता है और कई बार जब किसी नयी हिंदी फ़िल्म को देखते हुए अचानक किसी विदेशी फ़िल्म का दृश्य ज़हन में उभरने लगता है तो समझ में आता है कि ‘उठाने’ का यह अर्थ भी हम पर ठीक-ठाक तरीक़े से ‘अप्लाई’ होता है।

इस फ़िल्म का केंद्रीय विषय ‘पीकू’(दीपिका पादुकोण) से ज़्यादा उसके बाबा बैनर्जी(अमिताभ बच्चन) या उनकी क़ब्ज़ मालूम होते हैं। बाबा प्रगतिशील हैं और बड़ी सहजता के साथ पीकू के सैक्स-संबंधों की चर्चा करते हैं। क़ब्ज़ और सैक्स पर वे एक जैसी सहजता से बात करते हैं। जीवन के कई मसलों को वे पेट और क़ब्ज़ से जुड़ा मानते हैं या जोड़ देते हैं। वे क़ब्ज़ के मरीज़ हैं इस नाते अगर वे अपने सैक्स-जीवन की भी थोड़ी चर्चा करते तो दर्शकों को कुछ लाभ होता। यह इसलिए भी ज़रुरी था कि आगे की कहानी से भी इसका ख़ास संबंध है। बाबा पीकू के सैक्स-जीवन की तो चर्चा करते हैं मगर उसकी शादी के न सिर्फ़ खि़लाफ़ हैं बल्कि उसमें रोड़े अटकाने से भी बाज़ नहीं आते। यह अजीब इसलिए लगता है कि पीकू को शादी में दिलचस्पी है। बाबा स्वाथी भी कम नहीं हैं।


कलकत्ता का अपना एक पुराना मकान बेचने के लिए वे राना चौधरी(इरफ़ान) से गाड़ी किराए पर लेते हैं। चूंकि ऐन वक़्त पर कोई ड्राइवर उपलब्ध नहीं होता इसलिए राना ख़ुद ही कलकत्ता जाने का फ़ैसला करता है। इसके बाद बीच सफ़र में राना, बैनर्जी और पीकू की क़ब्ज़ सहित विभिन्न विषयों पर बातचीत और नोंकझोंक है। यह दिलचस्प बातचीत कलकत्ता में बैनर्जी के घर में रहने के दौरान भी जारी रहती है। यहीं पीकू और राना एक-दूसरे से ख़ुलते हैं। अंततः यहीं बैनर्जी की मृत्यु भी होती है।


यहीं एक हल्का झटका देनेवाला प्रसंग आता है। बैनर्जी की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी पीकू को अपने आगे के सफ़र के लिए साथी तय करना है। राना से पहले वह जिस युवक की तरफ़ आकर्षित है और संभवत़ शादी को लेकर प्रतिबद्ध है, उससे पूछती है कि कहीं तुम्हे क़ब्ज़ तो नहीं है? और यह पता लगने पर कि उसे क़ब्ज़ है, वह उससे शादी न करने का फ़ैसला करती है। यहां दो बातें अजीब लगतीं हैं। एक तो यह कि ‘पीकू’ को अपने क़रीबी व्यक्ति की क़ब्ज़ के बारे में पहले से पता क्यों नहीं है? दूसरे, वह व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ और ऐक्टिव है। ऐसे में सिर्फ़ क़ब्ज़ की वजह से किसी प्रिय को कैसे ठुकराया जा सकता है! बहरहाल इसके लिए जस्टीफ़िकेशन यह भी हो सकता है कि वह राना को पसंद करने लगी है। कलको पीकू को क़ब्ज़ हो जाए तो राना उसके साथ क्या करेगा और उसे प्रगतिशीलता माना जाएगा या तानाशाही, यह सवाल किसीके दिल में उठे तो इसे ख़ारिज़ कैसे किया जा सकता है? दरअसल मनोवैज्ञानिक नज़रिए से देखें तो यह संतानों का अपने माता-पिता से छुपी-दबी, चेतन-अचेतन घृणा का अतिरेक-से भरा प्रतिशोध है। यह एक क़ब्ज़ यानि अतिरेक को दूसरी क़ब्ज़ यानि दूसरे अतिरेक के सहारे भूलने की कोशिश जैसी लगती है। बहरहाल इसका दूसरा आयाम मानवता और उदारता है जिसमें वक़्त और परिस्थिति के अनुसार किसीको भी अपनी सोच-समझ से फ़ैसले लेने या बदलने की छूट होती है या होनी चाहिए।


बहरहाल, बंद भारतीय समाज को ऐसी फ़िल्मों की ज़रुरत है, इनका स्वागत होना चाहिए, इन्हें देखा जाना चाहिए। भारतीय समाज की मानसिक क़ब्ज़ को दूर करने के लिए ये ज़रुरी हैं।


हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री अपनी इस क़ब्ज़ का इलाज करने की कोशिश कर रही है, अच्छा लक्षण है। मगर इस इंडस्ट्री में और भी तरह-तरह की क़ब्ज़ें मौजूद हैं। क्या वजह है कि अभिषेक बच्चन को ढेरों फ़िल्में फ़्लॉप होने के बाद भी काम मिलता रहता है, ऋतिक रोशन की सिर्फ़ वही फ़िल्में चलतीं हैं जो पापा राकेश रोशन बनाते हैं, फिर भी वे क़ामयाब स्टार हैं, यही हाल शाहिद कपूर का भी है, मगर ये सब ‘सफ़ल’ हैं, ‘कार्यरत’ हैं। और चिराग़ पासवान बस एक फ़िल्म की असफ़लता के बाद अपने घर लौट आते हैं!? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एक क़ब्ज़ को छुपाने के लिए दूसरी क़ब्ज़ को दूर हटाने का ज़रुरत से ज़्यादा प्रचार कर रहे हों!?


दीपिका पहले से ज़्यादा परिपक्व और सहज हुई हैं। अमिताभ बच्चन भी अपने रोल में फ़िट हैं। इरफ़ान शुरु से ही अच्छे अभिनेता हैं, यहां वे भी पहले से बेहतर हैं क्योंकि यहां अभिनेता इरफ़ान का ख़ास स्टाइल कम और पात्र की मौजूदगी ज़्यादा नज़र आती है।


-संजय ग्रोवर

16-05-2015



10 comments:

  1. Kahin kabz ko bhi yesab dekh sun kar kabz n ho jaye

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    1. क़ब्ज़ की नब्ज़ इतनी तो पकड़ में आ गई है कि अब किसीको सब्ज़बाग़ नहीं दिखा पाएगी :-)

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  2. आपने बहुत अच्छा लिखा है। फिल्म भी ठीक ही है लेकिन अगर बाबा बेनर्जी गरीब आदमी होता तो कहानी क्या होती ?

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    1. आपने एक नया पहलू बताया, स्वागत है।

      बाबा बैनर्जी ग़रीब होते, बाबा बैनर्जी स्त्री होते, बाबा बैनर्जी, किसी अस्वीकृत जाति से होते....ये सब सोचा जा सकता है, सोचने में क़तई कोई बुराई नहीं। जो हो रहा है उससे आगे का सोचना बेहतर हो सकता है।

      मैं भी सोचूं, आप भी सोचें कि बाबा बैनर्जी उक्त में से कोई होते तो क्या होता? क्या कोई इसपर फ़िल्म बनाता ? बनाता तो कौन-कौन देखता ? कौन-कौन समीक्षा करता ? तब हम उन्हें/‘उसे’ ‘होते’ कहते या ‘होता’/‘होती’ कहते......ये सभी सोचने की बातें हैं।

      ऐसी प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया।

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    2. आपने एक नया पहलू बताया, स्वागत है।

      बाबा बैनर्जी ग़रीब होते, बाबा बैनर्जी स्त्री होते, बाबा बैनर्जी, किसी अस्वीकृत जाति से होते....ये सब सोचा जा सकता है, सोचने में क़तई कोई बुराई नहीं। जो हो रहा है उससे आगे का सोचना बेहतर हो सकता है।

      मैं भी सोचूं, आप भी सोचें कि बाबा बैनर्जी उक्त में से कोई होते तो क्या होता? क्या कोई इसपर फ़िल्म बनाता ? बनाता तो कौन-कौन देखता ? कौन-कौन समीक्षा करता ? तब हम उन्हें/‘उसे’ ‘होते’ कहते या ‘होता’/‘होती’ कहते......ये सभी सोचने की बातें हैं।

      ऐसी प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया।

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  3. Sanjay Ji bahut sateek samiksha likhi hai aapne. Bollywood apne purane sade gale formule chhod kar naye vishay talash raha hai ye bahut achchhi baat hai, iska swagat hona chahiye. Bade abhineta bhi ismen sehyog de rahe hain dekh kar khushi hui. 3 main kirdaron ke alawa bhi film ke baki kirdaar bejod hai.

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    1. आपने सही कहा नीरज जी, फ़िल्म में और भी कलाकार हैं, कई ने अच्छा अभिनय भी किया है, इसके अलावा गीत-संगीत, फ़ोटोग्राफ़ी, कोरियोग्राफ़ी जैसे अन्य कई पक्ष भी फ़िल्मों में होते हैं। जैसा मैंने ऊपर ही लिखा है कि मैं पारंपरिक क़िस्म की समीक्षाएं नहीं लिखने जा रहा, जो ज़्यादा महत्वपूर्ण लगेगा, पहले उसीको कहने की कोशिश करुंगा ; बाद में दूसरे पक्ष भी आएंगे।

      जहां तक कलाकारों की बात है, बहुत-सारे और बहुत ही टेलेंटेड कलाकार फ़िल्मों में आ गए हैं, आते जा रहे हैं, इतनी मात्रा में टेलेंट एक साथ पहले शायद ही कभी आया हो। मेरा ख़्याल है, या सुझाव ही समझ लीजिए, कि कलाकारों के नाम उनकी तस्वीरों के साथ फ़िल्म के अंत में देने चाहिएं। कई कलाकारों को दर्शक नहीं जानते होते, मगर उन्हें काम अच्छा लगता है तो बाद में जानना चाहते हैं।

      प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया। सुझाव देते रहें।

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    2. आपने सही कहा नीरज जी, फ़िल्म में और भी कलाकार हैं, कई ने अच्छा अभिनय भी किया है, इसके अलावा गीत-संगीत, फ़ोटोग्राफ़ी, कोरियोग्राफ़ी जैसे अन्य कई पक्ष भी फ़िल्मों में होते हैं। जैसा मैंने ऊपर ही लिखा है कि मैं पारंपरिक क़िस्म की समीक्षाएं नहीं लिखने जा रहा, जो ज़्यादा महत्वपूर्ण लगेगा, पहले उसीको कहने की कोशिश करुंगा ; बाद में दूसरे पक्ष भी आएंगे।

      जहां तक कलाकारों की बात है, बहुत-सारे और बहुत ही टेलेंटेड कलाकार फ़िल्मों में आ गए हैं, आते जा रहे हैं, इतनी मात्रा में टेलेंट एक साथ पहले शायद ही कभी आया हो। मेरा ख़्याल है, या सुझाव ही समझ लीजिए, कि कलाकारों के नाम उनकी तस्वीरों के साथ फ़िल्म के अंत में देने चाहिएं। कई कलाकारों को दर्शक नहीं जानते होते, मगर उन्हें काम अच्छा लगता है तो बाद में जानना चाहते हैं।

      प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया। सुझाव देते रहें।

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  4. आपने न सिर्फ सुविचारित समीक्षा की है बल्कि फ़िल्म के मर्म को भी खोला। साहित्य में जब आज कोई विषय वर्जित नहीं तो फ़िल्म में क्यों ?बॉलीवुड यह समझ रहा है यह अच्छा लक्षण है।

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  5. waise rana ne kabj ki to dava bhi bata di hai aur aayurved ke lihaj se wah sahi bhi hai..
    indian toilet use karne valo ko kam kabj hoti hai banisbat advanced toilet use karne valo ke.

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