(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Sunday 3 May 2015

भ्रष्टाचार और फ़िल्मी ‘शक्तियां’

पिक्चर-हॉल में जब ईमानदार(!) हीरो बेईमान विलेन को मारता है तो हॉल तालियों से गूंज उठता है। अगर इस मुखर समर्थन से नतीजे निकालना चाहें तो अर्थ यही निकलता है कि पूरा हॉल भ्रष्टाचार-विरोधी है। फ़िल्म बनानेवाला भी भ्रष्टाचार-विरोधी है क्योंकि उसने भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ फ़िल्म बनाई है। फ़िल्म में पैसा लगानेवाले इसलिए भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने ऐसी फ़िल्म में पैसा लगाया है। सेंसर बोर्ड और उसके लोग इसलिए भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने इस फ़िल्म को पास कर दिया। आमिर ख़ान भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ बनाया। लाखों दर्शक भी भ्रष्टाचार-विरोधी हैं क्योंकि वे इसे नियम से देखते थे। इसी तरह से प्रसारित करनेवाले चैनल और प्रायोजित करनेवाली कंपनियां भी भ्रष्टाचार-विरोधी हुए।

क्या मामला इतना ही सीधा और आसान है !?

फिर भ्रष्टाचार करता कौन है!?  

क्या बड़े बजट की फ़िल्में व्हाइट मनी से बनतीं हैं!?

छोड़िए। उस फ़िल्म की बात करते हैं जिसे लोग गंभीरता से लेते हैं। ‘सारांश’ के मास्टरजी जब हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं तो संबद्ध विभाग में मौजूद एक पुराना शिष्य उन्हें पहचान लेता है और उनकी मदद करता है। जहां तक मुझे याद आता है वह मास्टरजी से कहता है कि आपने जो शिक्षा दी थी उसीका परिणाम है कि मैं आपकी मदद कर रहा हूं। अगर इसे हम सच मानें तो होना यह चाहिए कि मास्टरजी के सभी शिष्य इसी तरह से लोगों की मदद कर रहे होंगे। हालांकि मुझे नहीं याद कि मास्टरजी उससे पूछते हैं या नहीं कि मुझसे पहले मेरे जैसे कितने लोगों की मदद तुमने की? अगर की तो उनकी ईमानदारी की वजह से की या जान-पहचान की वजह से की? जान-पहचान, अपनी जाति, अपनी रिश्तेदारी, अपने मोहल्ले, अपनी दोस्ती, अपने लिंग, अपने शहर आदि का होने की वजह से किसीकी मदद करना समस्या का हल नहीं है, समस्या की जड़ है। यहां ईमानदार लोगों के काम सिर्फ़ रिश्वत वालों की वजह से नहीं रुकते, जान-पहचान, जुगाड़, प्रभाव वालों की वजह से भी रुकते हैं। अभी एक चैनल ने अपनी इस ‘उपलब्धि’ के लिए अपनी ख़ूब तारीफ़ की कि उसने किसी वृद्ध व्यक्ति के 20-22 साल से रुके काम को करवा दिया। उपलब्धि यह तब होती जब चैनल का कोई व्यक्ति साधारण व्यक्ति की तरह जाकर इस काम को कराता। चैनल के नाम, कैमरे और लाव-लश्कर के साथ काम कराना ‘प्रभाव’ डालना है। ‘प्रभावशाली’ व्यक्तियों या संस्थाओं के काम यहां पहले होते हैं इसलिए साधारण लोगों के काम रुक जाते हैं, यही तो असल समस्या है। पर टीवी और फ़िल्मवाले अकसर इसी तरह के हल सुझाते हैं।

‘गब्बर इज़ बैक’ में अक्षय एक प्राइवेट हॉस्पीटल में अमानुषिक भ्रष्टाचार होता देखते हैं और मोबाइल रिकॉर्डिंग के ज़़रिए इससे जूझने की योजना बनाते हैं, यहां तक बात समझ में आती है। मगर बाद में वे जिस तरह हवा में लात-घूंसे चलाते हैं और लोगों को चींटियों की तरह उड़ाते हैं वह क्या आम आदमी के लिए संभव है ? क्या हर आदमी को ख़ली या दारासिंह बनना पड़ेगा ? फ़िल्म और टीवी की पूरी क़वायद किसी ‘चमत्कारी शक्ति’ की खोज पर जाकर ख़त्म होती है। सवाल यह है कि चमत्कारी शक्तियां किसीको मिल भी जाएं तो क्या गारंटी है कि वह उनका इस्तेमाल ईमानदारी के पक्ष में करेगा ? क्या भ्रष्टाचार करनेवाले ज़्यादातर लोग वही नहीं हैं जिन्होंने किसी न किसी तरह कुछ शक्तियां जमा कर लीं हैं ? सवाल यह भी है कि व्यक्ति ईमानदार हो या बेईमान, वह दूसरों से ज़्यादा, दूसरों से अलग़ कुछ शक्तियां इकट्ठा करना ही क्यों चाहता है? एक सभ्य और मानवीय समाज में इन शक्तियों की आवश्यकता या उपयोगिता आखि़र क्या है ? क्यों है ? एक बच्चे में शक्ति और मशहूरी की आकांक्षा जन्मजात और प्रकृति की देन है या किन्हीं संस्कारों के तहत जान-बूझकर घुसेड़ी गई है? ये संस्कार किस तरह के लोगों ने बनाए हैं ? वे आखि़र चाहते क्या हैं/थे? कहीं शक्ति/मशहूरी/ऊंचाई की आकांक्षा ही तो लोगों को भ्रष्ट नहीं बना देती?


-संजय ग्रोवर
03-05-2015

1 comment: