(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Friday 15 April 2016

फ़ैन : दो मनोरोगी, एक राक्षस दूसरा सुधारक!

हालांकि शाहरुख़ की पिछली फ़िल्मों जोकि काफ़ी समय से बचकाना कहानियों पर आधारित रहीं हैं, की तुलना में यह फ़िल्म एक गंभीर प्रयास दिखाई देती है। मगर यह गंभीरता किसके पक्ष में है, इसके पीछे नीयत क्या है, यह पता लगाने की कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।
सायबर क़ैफ़े चलानेवाला गौरव चानना, फ़िल्मस्टार आर्यन खन्ना का भक्त/फ़ैन है। उसकी नक़ल करके वह कॉलोनी का हीरो कहलाता है। उससे मिलने जाता है और अपेक्षित व्यवहार न मिलने पर उसका दुश्मन हो जाता है। उसे परेशान करना शुरु कर देता है। अंततः मारपीट और लेक्चरबाज़ी....

यशराज बैनर की ही सुपरहिट फ़िल्म ‘डर’ में मनोरोग से संबद्ध विषय के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया था, इस फ़िल्म में भी किया गया है। यहां भी व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझने और सहानुभूति रखनेवाला कोई पहलू या पात्र(जैसे मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक) मौजूद नहीं है। इस तरह की फ़िल्में एक बच्चे की मानसिकता के निर्माण में शामिल अभिभावकों और समाजों को ‘बुरे’या ‘राक्षस’ बच्चों की बुराई या ‘राक्षसत्व’ में लगी उनकी ज़िम्मेदारी से भागने के बहाने उपलब्ध करातीं हैं, इन फ़िल्मों को देखकर लगता है कि कुछ बच्चे स्वयं जन्म से यह तय करके पैदा होते हैं कि कुछ भी हो जाए, हम तो सिर्फ़ चोरी, ठगी, हिंसा और बलात्कार ही करेंगे। जबकि एक असलियत यह भी है जो बच्चे हमें ‘अच्छे’, ‘दैविय’ और ‘स्मार्ट’ लगते हैं, हरक़तें उनमें से भी कई सब तरह की कर रहे होते हैं मगर ज़रा शातिराना, ख़ुशनुमां, सधे हुए और उस्तादों के आज़माए तौर-तरीक़ों के साथ कर रहे होते हैं।

एक फ़िल्मस्टार को महान बताने और बनाने की नीयत/पूर्वाग्रह फ़िल्म की शुरुआत से ही दिखना शुरु हो जाते हैं।

आखि़र इन भक्तनुमां फ़ैनों को इन सब अजीबो-ग़रीब हरक़तों के लिए प्रोत्साहन मिलता कहां से है !? मुझे कुछ नये/पुराने धुंधले-धुंधले से साक्षात्कार याद आते हैं जिनमें अपने फ़ैंस की अजीबो-ग़रीब हरक़तों का पूरी शानो-शौक़त से ज़िक्र किया जाता है, ख़ून से ख़त लिखनेवाली प्रशंसिकाओं के क़िस्से होते हैं। और आजकल जगह-जगह,  तरह-तरह से किए जानेवाले प्रोमोज़ तो सभी देखते हैं, उनके बारे में क्या बताना !

फ़िल्म सारा दोष फ़ैन पर डालती दिखाई देती है, जबकि अतार्किक, ऊल-जुलूल, मनगढंत फ़िल्मों के दीवानों से बहुत ज़्यादा तार्किकता व संवेदना की उम्मीद रखना व्यर्थ है। अगर वे इतने ही जागरुक होते तो ये भी जानते होते कि फ़िल्म में महान दिखना और सचमुच महान होना दो अलग-अलग बातें हैं। यह अलग बात है कि अपने यहां अकसर यह देखने में आ रहा है कि हरक़तें तो मिलती-जुलती होतीं हैं पर इमेजसजग लोग इन्हीं पर श्रेष्ठता या महानता का बैनर लगा लेते हैं और लापरवाह बेचारे राक्षस ठहरा दिए जाते हैं।

हैरानी होती है कि जिस इंडस्ट्री में रफ़ी और किशोर सहगल के गाने गाते हुए काम पाते हैं, आशा भोंसले गीता दत्त को कॉपी करतीं हुई जवान होती हैं, सोनू निगम ‘ट्रिब्यूट टू मोहम्मद रफ़ी’ के नाम से अपने गाने बेचकर पहचान बनाते हैं, किसी विदेशी फ़िल्म की नक़ल पर बनी हिंदी फ़िल्म (पुनर्जन्म के अंधविश्वास पर आधारित) ‘कर्ज़’ की नक़ल पर ‘ओम शांति ओम’ बनती है, किसी विदेशी ही फ़िल्म की नक़ल पर ‘डॉन’ और फिर उसीकी नक़ल पर एक और ‘डॉन’.... बनती है यानि जहां मौलिकता का इतना अकाल है, ऐसी इंडस्ट्री का एक नायक अपने एक ऐसे ठसबुद्धि और भावुक, मरते हुए फ़ैन को मौलिकता के बल पर ‘पहचान’ बनाने की सलाह देता है जो उसके और इंडस्ट्री के पास काम मांगने नहीं, सिर्फ़ एक ट्राफ़ी शेयर करने आया है।

इस तरह की बचकानी स्थितियां फ़िल्म में कई जगह अनायास ही आ गई लगतीं हैं जो ‘छोटे-बड़े’, ‘ऊंचे-नीचे’ बनने-बनाने के पीछे की मानसिकता को स्वत ही उघाड़ जातीं हैं। फ़िल्म कुछ देर और दूरी तक यथार्थ के साथ चलने की कोशिश करती नज़र करती नज़र आती है, मगर जैसे ही नायक अपराधी को ख़ुद पकड़ने की चमत्कारिक (और अहंकार-भरी भी) कोशिशों में ताबड़तोड़ कूदा-फ़ांदी और मारा-तोड़ी में लग जाता है, फ़िल्म पूरी तरह से नायक को भगवान की तरह देखने और दिखाने की अपनी औक़ात पर आ जाती है। जब आर्यन खन्ना अपने फ़ैन चानना से कहता है कि ‘तुम अपनी जगह रहो, मुझे मेरी जगह रहने दो’ तो लगता है कि वह विज्ञान, तक़नीक़ और नये विचारों के फलस्वरुप आ रही वास्तविक समानता से घबराए हुए ‘बड़े लोगों’ के किसी दयनीय गुट का प्रतिनिधित्व कर रहा है। वह ‘छोटों’ से मिलनेवाले सारे फ़ायदे तो ले लेना चाहता है मगर उन्हें उनकी ’जगह’ भी बनाए-दिखाए रखना चाहता है। जब आर्यन खन्ना पुलिस अधिकारी को पूरे अधिकारपूर्वक ढंग से, क़ानून से इतर, अपने निर्देशों का पालन करने के निर्देश देता है और पुलिस जिस तत्परता और ‘विनम्रता’ से उनका पालन करती है, दिखाने और समझने के लिए काफ़ी है कि ‘बड़े’ बनने के क्या ‘फ़ायदे’ हैं, इसके पीछे किस तरह की अहंकारी और अप्रत्यक्ष रुप से शासन करने की मानसिकता होती है और यह मानसिकता सामान्य जनता के दैनिक कामों/चरित्रों और मानवीय सभ्यता को किस तरह बाधित करती और विकृत बनाती है।

स्त्री-संदर्भों में भी यह मानसिकता अनायास ही उघड़ आई लगती है। विदेशी पुलिस अधिकारी आर्यन खन्ना से कोई सवाल पूछता है तो जवाब में आर्यन की सैक्रेटरी बोलना शुरु कर देती है। पुलिस अधिकारी उससे कहता है कि ‘कि क्या आप आर्यन खन्ना हो !? आप क्यों जवाब दे रही हो ?’ इसपर आर्यन पुलिस अधिकारी से कहता है कि ‘आपको स्त्रियों से बात करने की तमीज़ नहीं है ?’ हंसी आती है कि आखि़र यहां स्त्री-संदर्भ कहां से पैदा हो गया !? औसत बुद्धि से भी यह समझने में कोई दिक़्क़त नहीं है कि अगर सैक्रेटरी पुरुष होता तब भी एक साहसी, ईमानदार, निष्पक्ष, अप्रभावित, अ-चमचे अधिकारी को यही कहना चाहिए था। लेकिन हम लोगों को इसकी आदत कहां ? हम चाहें तो पूरी दुनिया को अपने घर में बुलाकर ‘सेवा’ करा लें। अपॉर्च्युनिज़्म, इलीटिज़्म या (दलित-विमर्श की भाषा में) मनुवाद किस तरह हर बदलाव या विचार की लहर या छाती पर सवार होकर उसे अपने नाजायज़ फ़ायदे में बदल देता है या बदलना चाहता है, जाने-अनजाने में फ़िल्म के ऐसे दृश्य बता जाते हैं। फ़िल्म के अन्य दृश्य में स्त्री-संदर्भ में फ़िल्म स्टार की ‘दृष्टि’ और खुलकर सामने आती है जब वह कहता है कि ‘मेरे ही घर में घुसकर कोई मेरी ही रेडवाइन पीकर मेरी ही बीवी से फ़्लर्ट करे और मैं देखता रहूं?’ इस डायलॉग को सुनकर उस्ताद लोगों के पुराने शेर और कहावतें याद आतीं हैं जिनमें शराब के साथ-साथ शबाब यानि स्त्री को भी सामान की तरह देखा और इस्तेमाल किया जाता है। थोड़ी राहत मिलती है जब पत्नी कहती है कि जब तुम्हारे पास वक़्त नहीं है तो दूसरों को मौक़ा क्यों न मिले। वैसे सोचने की बात है कि कोई (मर्द) फ़िल्म स्टार जब दूसरी स्त्रियों से संबंध बनाता है(अगर बनाता है) तो क्या उसके सामने भी ‘पत्नी को वक़्त न मिलने’ जैसी कोई शर्त होती है ? होशियार लोग अपनी पुरानी कबाड़ा सोच को ही कैसे प्रगतिशीलता का बैनर लगाकर पेश कर देते हैं, यहां से देखा/सीखा जा सकता है।     

हालांकि फ़िल्म में कहीं यह विश्लेषित करने की कोशिश नहीं की गई है कि अपने भगवान आर्यन खन्ना की भक्ति में डूबकर भक्त गौरव चानना उसके प्रतिद्वंदी हीरो के साथ जो मारपीट करता है, वह किस तरह सही या ग़लत है, मगर संवैद्यानिक और मानवीय नज़रिए से यह स्पष्टतः ही ग़लत प्रतीत होता है। मगर इसका क्या किया जाए कि अपने यहां प्रचलित सभ्यता और दुनियादारी में किसीके पक्ष में खड़े होते वक़्त ‘अपने’ आदमी का सही-ग़लत नहीं देखा जाता, उसका तो साम-दाम-दंड-भेद(यह जो भी होता हो) से पक्ष ही लिया जाता है। और आर्यन खन्ना तो चानना का सबसे बड़ा ‘अपना’ है। 

वैसे तो जिस गति से समाज में जागरुकता आ रही है, वह दिन दूर नहीं लगता जब लोग यह तथ्य भी जानने लगेंगे कि अगर दीवानावार, भक्तनुमां चाहत अंततः मनोरोग में बदल सकती है तो बड़ा बनने या ऊंचा दिखने की अंतहीन महत्वाकांक्षा या लिप्सा भी कभी भी लोगों पर एकतरफ़ा तानाशाह शासन की मनोविकृति के रुप में सामने आ सकती है। फ़ैन और फ़ैवरिट का मामला एकतरफ़ा कतई नहीं है। दोनों के बीच बहुत योजनाबद्ध ढंग से एक संबंध गढ़ा गया है, यह संबध लगभग भगवान-भक्त, गुरु-शिष्य के जैसा ही संबंध है जिसमें पवित्रता, आज्ञाकारिता, शालीनता और आदर आदि के नाम पर लगभग ग़ुलाम-मालिक़ और पालक-पालतू जैसे घटिया रिश्तों को महिमा-मंडित किया गया है। अब उसके कुछ बुरे पहलू सामने आते हैं तो उसकी ज़िम्मेवारी भी तो लेनी होगी। ज़ाहिर है कि जिन्होंने इस तरह की व्यवस्थाओं के फ़ायदे उठाएं हैं, उन्हें नुकसान के उत्तरदायित्व से बचकर भागना शोभा नहीं देता।

गौरव चानना के रुप में शाहरुख़ ने और निर्देशक के रुप में शर्माजी ने क़ाफ़ी मेहनत की है।


-संजय ग्रोवर
15-04-2016


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