(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Saturday 12 March 2016

ओह माय गॉड: कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -  
1, IMDb  

12-03-2016

कांजीलाल मेहता नास्तिक है और चोर बाज़ार में मूर्तियों की दुकान चलाता है। धंधे के लिए झूठ भी बोलता है, बेईमानी भी करता है। बेटे चिंटू को ‘मटकी फोड़ो’ कार्यक्रम से वापस लेने जाता है और वहां बेटे को लोगों के कंधों से उतरता न देखकर ग़ुस्से में माइक उठाकर घोषणा कर देता है कि भगवान कृष्ण स्वयं लोगों के घर आकर दूध-मक्खन खाएंगे। लोग प्रोग्राम छोड़कर घरों को दौड़ जाते हैं। यहीं से कांजीलाल का वहां बैठे बाबा लोगों से पंगा शुरु हो जाता है। बाद में उसे पता चलता है कि भूकंप के हल्के झटकों के बाद चोर बाज़ार में स्थित उसकी दुकान गिर गई है, बाक़ी सब दुकानें सलामत हैं। कांजीलाल को उम्मीद है कि बीमा कंपनी से उसके सारे नुकसान की रिकवरी हो जाएगी मगर मैनेजर कहता है कि कंपनी चोरी, आग, फ्रॉड आदि के लिए क्लेम देती है मगर ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ के लिए नहीं। परेशानियों से हारकर कांजी भगवान पर मुक़दमा डालता है, और तरह-तरह की घटनाओं के साथ फ़िल्म आगे चलती है।

दरअसल फ़िल्म यहीं से ग़लत राह पकड़ लेती है। काल्पनिक भगवान पर मुक़दमा करने से ज़्यादा व्यवहारिक यह होता कि कांजी बीमा कंपनी पर मुक़दमा करता कि वह भूकंप को ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ साबित करके दिखाए। लेकिन बाद में ‘पीके’ और 1953 में बनी ‘नास्तिक’ देखने से समझ में आया कि फ़िल्मों में सही ढंग की नास्तिकता कहीं दिखाई ही नहीं जाती। इस फ़िल्म में भी यही किया गया है। कांजी के अच्छे-ख़ासे तर्कों और प्रयत्नों के बावज़ूद उसे सफ़लता नहीं मिलती और अंततः तथाकथित भगवान(!) ही उसकी मदद को प्रकट होते हैं। साहसी और तार्किक कांजीलाल कथित भगवान के बचकाने तर्कों के आगे जिस तरह समर्पण कर देता है, देखकर शर्म आने लगती है। भगवान को सोफ़े पर बैठे-बैठे बत्ती बुझाते-जलाते दिखाकर फ़िल्म में चमत्कार और अंधविश्वास को भी बढ़ावा दे दिया गया है। वक़ील हनीफ क़ुरैशी भी अल्लाह/भगवान के होने, न होने को लेकर गोलमोल भाषा में जवाब देता है। तथाकथित भगवान भी बाद की आधी फ़िल्म में वही गोलमोल भाषा बोलता है जो प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लोगों को साकार और निराकार, हाज़िर और ग़ायब में फ़ंसाए रखनेवाले ज़्यादातर लोग बोलते पाए जाते हैं।

सबसे अजीब बात यह है कि चूंकि कांजी का मुक़दमा जीतने में कुछ धर्मग्रंथों की कुछ पंक्तियां काम आतीं हैं, इसके बहाने तमाम धार्मिक ग्रंथों को प्रासंगिक और प्रामाणिक साबित करने की कोशिश की गई है। समझने की बात यह है कि चूंकि धार्मिक और बाबा लोग धर्मग्रंथों को भगवान का लिखा बताते हैं, इस चक्कर में वे अपने ही जाल में फ़ंस जाते हैं और धर्मग्रंथों की चंद पंक्तियों के सहारे कांजीलाल आसानी से सिद्ध कर देता है कि भूकंप ‘ऐक्ट ऑफ़ गॉड’ है और जीत जाता है। लेकिन मुक़दमा जीतने के लिए बनाई गई रणनीति के आधार पर साथ में यह सिद्व करने की कोशिश कि भगवान है और धर्मग्रंथों में सारी समस्यायों के हल हैं, नितांत हास्यास्पद है। तार्किक बात यह है कि जो व्यक्ति धर्मग्रंथों पर अंधाविश्वास न करता हो उसके सामने ईश्वर को साबित करने का कोई प्रामाणिक तरीक़ा संभव नहीं है।

नास्तिकता पर बनी ज़्यादातर हिंदी फ़िल्मों में नास्तिकता का ग़लत काँसेप्ट पेश किया जाता है। उसे या तो बेईमानी और कमज़ोरी की तरह पेश किया जाता है या फ़िर उसका मतलब भगवान के अस्तित्व को मानते हुए उसको ग़ाली देना या उससे लड़ना बताया जाता है या सिर्फ़ मूर्ति और कुछ कर्मकांडों और अंधविश्वासों के विरोध को नास्तिकता कह दिया जाता है। जबकि नास्तिकता का सही मतलब है आदमी का अपनी बुद्धि और काम में विश्वास यानि आत्मविश्वास और किसी भी अव्यवहारिक, अवास्तविक रहस्यमय ऐसी शक्ति से इंकार जो किन्हीं चालाक़ मान्यताओं के अनुसार उसके जीवन और कार्यों को पूरी तरह नियंत्रित करती है। इस फ़िल्म में नास्तिकता की शुरुआत तो ठीक-ठाक ढंग से होती है लेकिन आधी फ़िल्म होते-होते उसे फिर उसी रास्ते पर ठेल दिया जाता है जहां पहुंचकर लोग प्रगतिशीलता के नाम पर वही सब हरक़तें करने लगते हैं जिनके लिए वे दूसरों को डांट-फटकार कर ख़ुदको आधुनिक समझ रहे होते हैं। 

लेकिन इसीसे यह भी समझ में आता है कि ऐसी फ़िल्मों में अच्छे-ख़ासे चलते तर्कों के बीच एकाएक अजीबो-ग़रीब और असंगत घटनाएं और मोड़ क्यों आ जाते हैं।

और यह भी कि तथाकथित प्रगतिशील अकसर बेसिर-पैर की बातें और हरक़तें करते क्यों पाए जाते हैं।

और जहां तथाकथित प्रगतिशील इस कदर विरोधाभासों से भरे हों वहां कट्टरपंथिओं से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है ?

अगर भगवान के नाम पर मंदिर-मस्ज़िद के ज़रिए पैसा लेना-कमाना ग़लत है तो अंधविश्वास हटाने के नाम पर फ़िल्म बनाकर और उसमें गोलमोल बातें करके लोगों को बार-बार एक नये रहस्य के हवाले कर देना कैसे उससे अलग है ?

ऐसी फ़िल्में भी कमाई तो अ़च्छी-ख़ासी ही कर रहीं हैं मगर अंधविश्वास हटाने के नाम पर नया क्या बताती हैं !?


-संजय ग्रोवर
13-03-2016

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