(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Thursday 19 November 2015

इत्तेफ़ाक़ : पागलपन, दुनियादारी और सस्पेंस......

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -
IMDb

Wikipedia

दिलीप राय(राजेश खन्ना) एक पेंटर है। वह एक, जैसा कि क़िताबों और फ़िल्मों में अकसर कलाकारों को दिखाया जाता रहा है, उलझा-उलझा-सा, खोया-खोया-सा आदमी है, जल्दी उत्तेजित और हिंसक हो जाता है। शादीशुदा है मगर दुनियादारी से ज़्यादा अपने काम में लगा रहता है सो पत्नी परेशान रहती है। उनके बीच एक हिंसक झड़प  होती है और उसके बाद पत्नी का ख़ून हो जाता है। आरोप दिलीप राय पर है। मुक़दमे के दौरान भी वह अपनेआप पर क़ाबू नहीं रख पाता और कुछ ऐसी हरक़तें करने लगता है जिन्हें दुनियादारी, समझदारी और संभवतः मनोचिकित्सा की ज़ुबान में भी ‘पागलों जैसी’ हरक़तें कहा जाता है।

जज का कहना है कि पहले उसे पागलख़ाने में रखा जाए।

वह पागलख़ाने से भाग निकलता है और एक घर में जा छुपता है जहां रेखा(नंदा) अकेली है। उसका पति जगमोहन कलकत्ता गया है।

एक पागल अपराधी() और एक अकेली शादीशुदा गृहणी के बीच कुछ दिलचस्प बात-चीत और रोचक प्रसंग देखने को मिलते हैं। चूंकि संदर्भ पागलपन का भी है इसलिए इन दृश्यों को नाटकीय भी नहीं कहा जा सकता।

संभवतः यह राजेश खन्ना की शुरुआती फ़िल्मों में से एक है जब राजेश खन्ना का अपना कोई स्टाइल या मैनरिज़्म विकसित नहीं हुआ था (जिसकी नक़ल/मिमिक्री, आर्टिस्ट आसानी से कर पाते हैं और दर्शक भी जल्दी पहचान लेते हैं), शायद इसीलिए वे अपने पात्र में रम पाए हैं और बतौर (स्टार नहीं) अभिनेता बेहतर काम कर पाए हैं जो मुझे उनकी बाद की फ़िल्मों में कम दिखाई देता है।

1969 में बनी इस फ़िल्म में पागलपन को लेकर कोई बहुत गहरा और गंभीर विश्लेषण तो नहीं है मगर हॉरर और दूसरी थ्रिलर फ़िल्मों की तरह अतिरंजना या अतिश्योक्ति भी नहीं है। फ़िल्म में पात्रों की संख्या ज़्यादा नहीं है पर सस्पेंस लगभग अंत तक क़ायम रहता है।

फ़िल्म में इफ्तेख़ार और जगदीश राज की मशहूर पुलिसिया जोड़ी भी है जिसका रोल उस वक़्त की भारतीय टैस्ट क्रिकेट की ओपनर जोड़ियों की तरह आना और जाना ही होता था।

दर्शक(यानि मुझको) को ख़ुदसे जोड़े रखने में फ़िल्म अंत तक सफ़ल है।

फ़िल्म से एक ख़ूबसूरत डायलॉग-

डर दुनिया की सबसे ख़ौफ़नाक़ चीज़ है.....दुनिया में इतनी बुराई नज़र आती है......उसका सबब सिर्फ़ यह है कि हम एक-दूसरे से डरते हैं.....अगर हम एक-दूसरे से मोहब्बत करने लगें तो दुनिया बहुत ख़ूबसूरत हो जाए...

संवाद अख़्तर-उल-ईमान ने लिखें हैं।

वैसे फ़िल्म में दो-चार बार भगवान का भी ज़िक्र है। वही भगवान जिससे ज़्यादातर लोग डर के मारे संबंध रखते हैं।



-संजय ग्रोवर
19-11-2015


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