(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Sunday 1 November 2015

‘मैं और चार्ल्स’ और हम

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IMDb
Wikipedia


वह महीन फ्रेम का चश्मा लगाकर ज़हीन-सा दिखता है। आप उसकी अदाएं देखिए, जेस्चर्स या बॉडी लैंग्वेज देखिए, धीमी आवाज़ में बात करने का धैर्य देखिए, कई भाषाओं का ज्ञाता होना देखिए, स्त्रियों में लोकप्रियता देखिए, उसकी मुस्कान में गंभीरता और गहराई देखिए....

वह कुछ भी हो सकता था। कोई स्टाइलिश फ़िल्मस्टार, कोई ऊंचा उद्योगपति, दक्ष ब्यूरोक्रेट, बोल्ड पत्रकार, विद्रोही साहित्यकार, पक्का प्रॉपर्टी डीलर, अनुभवी अनुवादक.......कुछ भी...

फिर वह ठग ही क्यों है ?

उसका और उसके जैसे दूसरों का अंतर कुछ-कुछ बिन लादेन और जॉर्ज बुश के अंतर जैसा लगता है। दोनों धार्मिक रुप से कट्टर हैं मगर एक ही वक़्त में एक किन्हीं दूर-दराज़ पहाड़ियों में छुपता घूमता है तो दूसरा एक सम्मानित राजनीतिज्ञ की तरह रिटायर होता है।

चारों तरफ़ लोग हैं जो थोड़े कम या ज़्यादा चार्ल्स हैं। कुछ दुकानदार हैं जो एक ही चीज़ के किसीसे पांच तो किसीसे पचास तो किसीसे पांच सौ ले लेते हैं। प्रॉपर्टी डीलर हैं जो ऐडवांस के वक्त किसी और आदमी से मिलवाते हैं और रजिस्ट्री के वक्त किसी दूसरे को खड़ा कर देते हैं (हक़ीक़त में यक़ीन न हो तो ‘खोसला का घोंसला’ देखकर सीखें)। साहित्यकार और पत्रकार हैं जो क़ाग़ज़ का कोटा खाए चले जाते हैं। नौकरीशुदा टीए डीए बनाने में सारा ब्रेन लगा रहे हैं।

फिर वह ठग क्यों है !?


क्या वह दूसरों से कुछ कम प्रवीण है, कुछ कम शातिर है !? 


कहते हैं कि वह बड़ी सफ़ाई से पैसा लूटकर लड़कियों को ठिकाने लगा देता है। लड़कियों की भी क्या ग़लती ? वे जिन दूसरों से प्रभावित हो जातीं हैं वे इससे कितने अलग होते हैं ? वह भी क्या करे अगर ज़्यादातर लड़कियां प्रभावित ही उससे या उससे मिलते-जुलते लोगों से होतीं हैं ? शायद इसीलिए इसका बहुत कुछ उन लोगों से मिलता-जुलता-सा है! और अगर सब कुछ इतना मिलता-जुलता-सा है तो फिर लड़कियां भी क्या करें  ?


ठगों की ख़ासियत ही क्या है ? यही न कि वे कोई सबूत नहीं छोड़ते! वे अगर थोड़े और शातिर होते तो शुरु से एक इमेज बनाकर भी रखते। ‘बड़ों’ से संबंध बनाकर भी रखते। फिर शायद कभी जेल जाने की भी नौबत न आती।


मीरा शर्मा भी इन मुद्दों को लेकर काफ़ी सेंसेटिव दिखाई गई है। वह तीन-चार बार पोलिस ऑफ़िसर से छोटी-छोटी बहसें करती है।

फ़िल्म देखी जा सकती है। रनदीप हुडा(चार्ल्स) अपनी पिछली फ़िल्मों से बेहतर हैं। रिचा चड़ढा(मीरा) भी ठीक-ठाक हैं।

-संजय ग्रोवर
01-11-2015


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