(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Thursday, 19 November 2015

इत्तेफ़ाक़ : पागलपन, दुनियादारी और सस्पेंस......

इस फ़िल्म के बारे में आवश्यक जानकारियां आप इन दो लिंक्स् पर क्लिक करके देख सकते हैं -
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दिलीप राय(राजेश खन्ना) एक पेंटर है। वह एक, जैसा कि क़िताबों और फ़िल्मों में अकसर कलाकारों को दिखाया जाता रहा है, उलझा-उलझा-सा, खोया-खोया-सा आदमी है, जल्दी उत्तेजित और हिंसक हो जाता है। शादीशुदा है मगर दुनियादारी से ज़्यादा अपने काम में लगा रहता है सो पत्नी परेशान रहती है। उनके बीच एक हिंसक झड़प  होती है और उसके बाद पत्नी का ख़ून हो जाता है। आरोप दिलीप राय पर है। मुक़दमे के दौरान भी वह अपनेआप पर क़ाबू नहीं रख पाता और कुछ ऐसी हरक़तें करने लगता है जिन्हें दुनियादारी, समझदारी और संभवतः मनोचिकित्सा की ज़ुबान में भी ‘पागलों जैसी’ हरक़तें कहा जाता है।

जज का कहना है कि पहले उसे पागलख़ाने में रखा जाए।

वह पागलख़ाने से भाग निकलता है और एक घर में जा छुपता है जहां रेखा(नंदा) अकेली है। उसका पति जगमोहन कलकत्ता गया है।

एक पागल अपराधी() और एक अकेली शादीशुदा गृहणी के बीच कुछ दिलचस्प बात-चीत और रोचक प्रसंग देखने को मिलते हैं। चूंकि संदर्भ पागलपन का भी है इसलिए इन दृश्यों को नाटकीय भी नहीं कहा जा सकता।

संभवतः यह राजेश खन्ना की शुरुआती फ़िल्मों में से एक है जब राजेश खन्ना का अपना कोई स्टाइल या मैनरिज़्म विकसित नहीं हुआ था (जिसकी नक़ल/मिमिक्री, आर्टिस्ट आसानी से कर पाते हैं और दर्शक भी जल्दी पहचान लेते हैं), शायद इसीलिए वे अपने पात्र में रम पाए हैं और बतौर (स्टार नहीं) अभिनेता बेहतर काम कर पाए हैं जो मुझे उनकी बाद की फ़िल्मों में कम दिखाई देता है।

1969 में बनी इस फ़िल्म में पागलपन को लेकर कोई बहुत गहरा और गंभीर विश्लेषण तो नहीं है मगर हॉरर और दूसरी थ्रिलर फ़िल्मों की तरह अतिरंजना या अतिश्योक्ति भी नहीं है। फ़िल्म में पात्रों की संख्या ज़्यादा नहीं है पर सस्पेंस लगभग अंत तक क़ायम रहता है।

फ़िल्म में इफ्तेख़ार और जगदीश राज की मशहूर पुलिसिया जोड़ी भी है जिसका रोल उस वक़्त की भारतीय टैस्ट क्रिकेट की ओपनर जोड़ियों की तरह आना और जाना ही होता था।

दर्शक(यानि मुझको) को ख़ुदसे जोड़े रखने में फ़िल्म अंत तक सफ़ल है।

फ़िल्म से एक ख़ूबसूरत डायलॉग-

डर दुनिया की सबसे ख़ौफ़नाक़ चीज़ है.....दुनिया में इतनी बुराई नज़र आती है......उसका सबब सिर्फ़ यह है कि हम एक-दूसरे से डरते हैं.....अगर हम एक-दूसरे से मोहब्बत करने लगें तो दुनिया बहुत ख़ूबसूरत हो जाए...

संवाद अख़्तर-उल-ईमान ने लिखें हैं।

वैसे फ़िल्म में दो-चार बार भगवान का भी ज़िक्र है। वही भगवान जिससे ज़्यादातर लोग डर के मारे संबंध रखते हैं।



-संजय ग्रोवर
19-11-2015


Monday, 9 November 2015

प्रेम रतन धन पायो : वही ढाक के तीन पात !

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फ़िल्म किस दिन रिलीज़ होगी, हिट होगी या फ़्लॉप होगी..... ये सब आंकड़ेबाज़ों के लिए महत्वपूर्ण मसले हैं। अपने लिए अहम मुद्दा यह जानना है कि फ़िल्मकार कहना क्या चाहता है, उसकी नीयत क्या है, उसका कहने का ढंग क्या है.....। या फिर पैसे, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के लिए उसे ऐसा कुछ भी कहने और दिखाने से परहेज़ नहीं है जो उसे लगता है कि फ़िलहाल दर्शक को पसंद है और इसका भरपूर फ़ायदा वह उठा सकेगा। या वह किसी ऐसे समूह या मानसिकता का हिस्सा है जो दर्शकों/को अपने मनपसंद तरीक़े से गढ़ती/ढालती आई है और आगे भी यही करते रहना चाहती है !?

‘प्रेम रतन धन पायो’ के कुछ नमूना-गीत (ट्रेलर/सैम्पल सीन) देखने के बाद यही लगता है कि यह फ़िल्म ‘हम आपके हैं कौन’, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘सास भी कभी बहू थी’.....जैसे फ़िल्मों/सीरियलों की ही अगली कड़ी है। इसमें कुछ राजघरानों, ख़ानदानों, गानों और उनसे पैदा चकाचौंध/भव्यता का गुणगान, सादगी और सभ्यता के हिस्सों की तरह किया जाएगा। हमारे दर्शक अब तक ऐसी बेमेल खिचड़ियों जिनमें पूरब और पश्चिम, परंपरा और प्रगतिशीलता का अतार्किक या कहें कि सीज़ोफ्रीनिक सा मेल-जोल होता है, को बड़ी दिलचस्पी बल्कि श्रद्धा से देखते आए हैं। इस तरह की कहानियों जिन में स्त्री पिता से विद्रोह करके घर से तो भाग जाती है या भागना चाहती है मगर शादी से पहले ही छलनी में से करवाचौथ का चांद भी छानना शरु कर देती है, का दर्शकों पर कैसा असर होता होगा ? वह मर्दों से नफ़रत भी करती है और मर्द के बिना रह भी नहीं सकती। वह तलाक़ भी लेती है और अगली बार फिर किसी दुनियादार और सफ़ल मर्द की तलाश में जुट जाती है। 

अगर कोई एकता कपूर या बड़जात्या इस तरह की कृतियां बनाते हैं तो इससे उनकी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ता है ? आप देख सकते हैं कि एकता कपूर कैसे भी कपड़े पहन सकतीं हैं, कुछ भी खा पी सकतीं हैं, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन ‘तुलसी-फुलसी’ को आदर्श की तरह देखने और उनसे प्रेरणा ले लेनेवाली महिलाओं की ज़िंदगी एकता जैसी नहीं हो सकती। उनके लिए सभ्यताएं और संस्कृतियां नई-नई बाधाएं पैदा कर देतीं हैं। सलमान ख़ान किसी कहानी में तथाकथित राम जैसी मर्यादा दिखा सकते हैं, साथ में कथित कृष्ण जैसी छोटी-मोटी शरारतें भी कर सकते हैं लेकिन उनकी असली ज़िंदगी की मर्यादा वैसी नहीं होती, संपन्न कलाकार होने के नाते समाज में उन्हें तरह-तरह की छूटें हासिल होतीं हैं। वह समाज समानतावादी नहीं हो सकता जिसमें प्रेरणा और प्रेरित, आयकन और फ़ैन/भक्त के लिए अलग-अलग मानदंड हों।

मुझे नहीं मालूम इस फ़िल्म में क्या दिखाया गया होगा मगर एक समाज जो ख़ुद पिछले सैकड़ों सालों से चौबीस घंटे हलवा-पूड़ी, व्रत-त्यौहार, प्रतीक-कर्मकांड, पारंपरिक और आधुनिक अंधविश्वास आदि में व्यस्त है मगर उसीमें से कई लोग पिछले एक-डेढ साल से एक-दो नेताओं पर कट्टरपंथ का सारा इल्ज़ाम डालकर ख़ुदको प्रगतिशील माने ले रहे हैं, उस समाज का ऐसी कृतियों के साथ व्यवहार और इन कृतियों पर उसका विश्लेषण उसकी असलियत को छुपा नहीं पाता। 

फ़िल्म की समीक्षा फ़िल्म आने के बाद करेंगे।

मेरे लिए यह ख़ुशी की बात होगी अगर फ़िल्म में इससे अलग कुछ दिखाया गया हो।


09-11-2015

इधर बिहार चुनाव का नतीजा घोषित होता है उधर एन डी टी वी पर विज्ञापन दिखाई पड़ता है कि ‘मैगी वापस आ रहा है’.........

तक़नीक कितनी तेज़ हो गई है, लगता है विज्ञापन भी बने-बनाए आने लगे हैं।


इसी दीवाली पर रिलीज़ हुई फ़िल्म में गाना चल रहा है-


‘कुछ गुंजियां-वुंजियां (जैसा गाया गया है वैसा ही लिख दिया है) लेतेे चलो....


एक ही बात है भैया, गुंजियां-वुंजियां और मैगी-शैगी दोनों में मैदे का बड़ा योगदान है। 

फ़िल्म में हल्दीराम का बाक़ायदा ज़िक्र आता है। दीवाली का भी।

अयोध्या का भी ज़िक्र है, बड़ा भाई शरीफ़ और छोटा बदमाश है-वही राजेश खन्ना और प्रेम चोपड़ा का ज़माना ! यह चक्कर क्या है ? हमेशा बड़ा शरीफ़ और छोटा बदमाश क्यों ?

तो फिर प्रेम नाम रखने की क्या ज़रुरत आ पड़ी !? नाम भी वही रख लेने थे।

हमअक़्ल(और कमअक़्ल) तो बहुत देखे पर हमशक़्ल बस फ़िल्मों में ही दिखाई पड़ते हैं, यहां भी हैं। जैसा कि हमारी पुरानी फ़िल्मों में होता था, दोनों में फ़र्क करना मुश्क़िल, अगर एक को छोटी-सी मूंछ से अंडरलाइन न किया गया हो।

कुछ नया भी है, हीरो की दो सौतेली बहिनें हैं जिन्हें बाप की संपत्ति में अधिकार देने की बात प्रतीकात्मक ढंग से उठाई गई है जिसे बाद में तिलक और भैयादूज-वूज में निपटा दिया गया है। लगता है ‘प्रतीकात्मकता’ का आविष्कार ‘महापुरुषों’ ने इसी हेतु किया था।

सवाल यह है कि इस ‘नये’ को पुरानी कहानी में फ़िट करने की कोशिश क्यों की गई है !? 

क्या ‘सूरज बड़जात्या एंड कंपनी’ यह कहना चाहते हैं कि तथाकथित राम अब सुधरकर प्रेम हो गए हैं और अब उनके यहां बहिनें न सिर्फ़ पैदा हो सकतीं हैं बल्कि संपत्ति के बारे में भी सोच सकतीं हैं ?

तो इसके लिए कोई नई कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती थी !?
संभवतः यही वह ‘पुराना’ है जो ‘नया’ दिखाने की मजबूरी पैदा करता है। इसके दो कारण समझ में आते हैं-

1. कि हमारे यहां तो सब कुछ पहले-से ही मौजूद था-प्रगतिशीलता भी, विज्ञान भी, स्त्री-स्वातंत्र्य भी, आम का अचार भी, कत्थक भी, सालसा भी, पिपरमेंट भी और चॉकलेट भी.....

2. स्त्री-स्वातंत्र्य से लेकर नास्तिकता तक, हर बदलाव को धर्म के दायरे में क़ैद कर लो, बाद में तो निपट ही लेंगे। नहीं निपट पाए तो ‘श्रेष्ठता’ और ईगो इसीमें बची रहेगी कि ‘नया कुछ नहीं है, हमारे यहां सब पहले ही हो चुका है, ना मानों तो वह वाली क़िताब पढ़ लो और यह वाली फ़िल्म देख लो....

धर्म के दायरे में रहेगा तो सब पंडित जी के हाथ में रहेगा, वरना क्या पता कब क्या खिसक जाए....

अब क्या इसपर भी बात की जाए कि किसने कैसा अभिनय किया ? जहां सारी ज़िंदगी ही अभिनय जैसी हो रखी हो....। अच्छे काम के नाम पर अभिनय/कर्मकांड होता हो और बुरे काम वास्तव में किए जाते हों......

अभिनेता तो हम सभी बड़े अच्छे हैं, कोई किसीसे कम नहीं है। 

पर ज़िंदगी फ़िल्म नहीं है।

-संजय ग्रोवर
14-11-2015

(इस समीक्षा का हल्दीराम से कोई संबंध नहीं है, ये मेरे अपने विचार हैं)









Sunday, 1 November 2015

‘मैं और चार्ल्स’ और हम

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वह महीन फ्रेम का चश्मा लगाकर ज़हीन-सा दिखता है। आप उसकी अदाएं देखिए, जेस्चर्स या बॉडी लैंग्वेज देखिए, धीमी आवाज़ में बात करने का धैर्य देखिए, कई भाषाओं का ज्ञाता होना देखिए, स्त्रियों में लोकप्रियता देखिए, उसकी मुस्कान में गंभीरता और गहराई देखिए....

वह कुछ भी हो सकता था। कोई स्टाइलिश फ़िल्मस्टार, कोई ऊंचा उद्योगपति, दक्ष ब्यूरोक्रेट, बोल्ड पत्रकार, विद्रोही साहित्यकार, पक्का प्रॉपर्टी डीलर, अनुभवी अनुवादक.......कुछ भी...

फिर वह ठग ही क्यों है ?

उसका और उसके जैसे दूसरों का अंतर कुछ-कुछ बिन लादेन और जॉर्ज बुश के अंतर जैसा लगता है। दोनों धार्मिक रुप से कट्टर हैं मगर एक ही वक़्त में एक किन्हीं दूर-दराज़ पहाड़ियों में छुपता घूमता है तो दूसरा एक सम्मानित राजनीतिज्ञ की तरह रिटायर होता है।

चारों तरफ़ लोग हैं जो थोड़े कम या ज़्यादा चार्ल्स हैं। कुछ दुकानदार हैं जो एक ही चीज़ के किसीसे पांच तो किसीसे पचास तो किसीसे पांच सौ ले लेते हैं। प्रॉपर्टी डीलर हैं जो ऐडवांस के वक्त किसी और आदमी से मिलवाते हैं और रजिस्ट्री के वक्त किसी दूसरे को खड़ा कर देते हैं (हक़ीक़त में यक़ीन न हो तो ‘खोसला का घोंसला’ देखकर सीखें)। साहित्यकार और पत्रकार हैं जो क़ाग़ज़ का कोटा खाए चले जाते हैं। नौकरीशुदा टीए डीए बनाने में सारा ब्रेन लगा रहे हैं।

फिर वह ठग क्यों है !?


क्या वह दूसरों से कुछ कम प्रवीण है, कुछ कम शातिर है !? 


कहते हैं कि वह बड़ी सफ़ाई से पैसा लूटकर लड़कियों को ठिकाने लगा देता है। लड़कियों की भी क्या ग़लती ? वे जिन दूसरों से प्रभावित हो जातीं हैं वे इससे कितने अलग होते हैं ? वह भी क्या करे अगर ज़्यादातर लड़कियां प्रभावित ही उससे या उससे मिलते-जुलते लोगों से होतीं हैं ? शायद इसीलिए इसका बहुत कुछ उन लोगों से मिलता-जुलता-सा है! और अगर सब कुछ इतना मिलता-जुलता-सा है तो फिर लड़कियां भी क्या करें  ?


ठगों की ख़ासियत ही क्या है ? यही न कि वे कोई सबूत नहीं छोड़ते! वे अगर थोड़े और शातिर होते तो शुरु से एक इमेज बनाकर भी रखते। ‘बड़ों’ से संबंध बनाकर भी रखते। फिर शायद कभी जेल जाने की भी नौबत न आती।


मीरा शर्मा भी इन मुद्दों को लेकर काफ़ी सेंसेटिव दिखाई गई है। वह तीन-चार बार पोलिस ऑफ़िसर से छोटी-छोटी बहसें करती है।

फ़िल्म देखी जा सकती है। रनदीप हुडा(चार्ल्स) अपनी पिछली फ़िल्मों से बेहतर हैं। रिचा चड़ढा(मीरा) भी ठीक-ठाक हैं।

-संजय ग्रोवर
01-11-2015