एक वक़्त था जब पूरी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री हर तरह के गानों के लिए 8-10 गायकों पर निर्भर थी। किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, महेंद्र कपूर, मन्ना डे, लता मंगेशकर, आशा भोंसले....तत्पश्चात्.....कभी-कभार अनवर, मनहर, वाणी जयराम, सुमन कल्याणपुर को भी एकाध गाना मिल जाता था। सहगल, तलत महमूद, मुबारक़ बेग़म, गीता बाली वगैरह पहले ही निपट चुके थे। कई बार ऐसा होता कि रेडियो पर सुनते-सुनते आपका पसंदीदा हो गया कोई गाना जिसे आप हीरोइन या किसी महिला चरित्र पर फ़िल्माया गया समझ रहे होते थे, हॉल में जाकर पता लगता कि यह तो किसी बच्चे या किशोर लड़के पर फ़िल्माया गया है। मज़ा कुछ किरकिरा हो जाता। गायकी में इंडस्ट्री का हाथ इतना तंग था कि नयी-नयी आई, बच्ची-सी दिखतीं पद्मिनीकोल्हापुरे या भाग्यश्री के लिए भी लता दीदी को गाना पड़ता।
फ़िर एकाएक, न जाने कहां से, गुलशन कुमार और टी सीरीज़ प्रकट हुए। उनकी ख़्याति चाहे जैसी रही हो पर उनकी वजह से सोनू निगम और अनुराधा पौंडवाल जैसे नए गायकों को भी जगह मिलने लगी। इस बीच ‘पाक़ीज़ा’ और ‘उमराव जान’ के मुज़रों की तुलना करते हुए कई बार यह भी लगता कि आशा भोंसले कहीं ज़्यादा टेलेंटेड गायिका है, उन्हें जो जगह मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। इस बीच शब्बीर कुमार और मोहम्मद अज़ीज़ जैसे गायकों का आना-जाना होता रहता था।
और भारत में केबल टीवी क्या आया कि गायकी का सारा परिदृश्य बदल गया। विदेशी शोज़ की नकल पर बने ‘इंडियन आयडल’ और ‘सारेगामा’ जैसे टीवी रिएल्टी शोज़ ने फ़िल्म इंडस्ड्री के बंद दरवाज़ों को पूरी तरह खोल दिया। उस नयी और लोकतांत्रिक हवा को मेरे और आपके घर के बच्चे भी महसूस कर सकते थे और कोशिश करें तो छू भी सकते थे। आज ‘बीड़ी जलइले’ जैसे गानों को मुबारक़ बेग़म और लता मंगेशकर के गले से सुनने की कल्पना ही अजीब लगती है। जबकि सुनिधि चौहान से इनका कोई भी गाना गवाया जा सकता है। आज फ़िल्म इंडस्ट्री में जितने नए नायक/नायिका आते हैं, उतनी ही संख्या में गायक/गायिका भी तैयार मिलते हैं। अब ब़ाल नायक को पचास साल के गायक के गाए गीत पर होंठ हिलाते हुए बेतुका और अजीब-सा दिखने की नौबत नहीं आ सकती, बहुत सारे बाल गायक उपलब्ध हैं।
यह बदलाव राहत देता है, ताज़गी देता है, लोकतंत्र के सही मायने बताता है, हमें इसकी कद्र करनी चाहिए।
यह तो अच्छा है कि फ़िल्म-इंडस्ट्री में सन्यास की परंपरा नहीं है, वरना बहुत-सारे बुज़ुर्गवार घर बैठे होते।
-संजयग्रोवर
02-11-2013
(On FaceBook)
फ़िर एकाएक, न जाने कहां से, गुलशन कुमार और टी सीरीज़ प्रकट हुए। उनकी ख़्याति चाहे जैसी रही हो पर उनकी वजह से सोनू निगम और अनुराधा पौंडवाल जैसे नए गायकों को भी जगह मिलने लगी। इस बीच ‘पाक़ीज़ा’ और ‘उमराव जान’ के मुज़रों की तुलना करते हुए कई बार यह भी लगता कि आशा भोंसले कहीं ज़्यादा टेलेंटेड गायिका है, उन्हें जो जगह मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली। इस बीच शब्बीर कुमार और मोहम्मद अज़ीज़ जैसे गायकों का आना-जाना होता रहता था।
और भारत में केबल टीवी क्या आया कि गायकी का सारा परिदृश्य बदल गया। विदेशी शोज़ की नकल पर बने ‘इंडियन आयडल’ और ‘सारेगामा’ जैसे टीवी रिएल्टी शोज़ ने फ़िल्म इंडस्ड्री के बंद दरवाज़ों को पूरी तरह खोल दिया। उस नयी और लोकतांत्रिक हवा को मेरे और आपके घर के बच्चे भी महसूस कर सकते थे और कोशिश करें तो छू भी सकते थे। आज ‘बीड़ी जलइले’ जैसे गानों को मुबारक़ बेग़म और लता मंगेशकर के गले से सुनने की कल्पना ही अजीब लगती है। जबकि सुनिधि चौहान से इनका कोई भी गाना गवाया जा सकता है। आज फ़िल्म इंडस्ट्री में जितने नए नायक/नायिका आते हैं, उतनी ही संख्या में गायक/गायिका भी तैयार मिलते हैं। अब ब़ाल नायक को पचास साल के गायक के गाए गीत पर होंठ हिलाते हुए बेतुका और अजीब-सा दिखने की नौबत नहीं आ सकती, बहुत सारे बाल गायक उपलब्ध हैं।
यह बदलाव राहत देता है, ताज़गी देता है, लोकतंत्र के सही मायने बताता है, हमें इसकी कद्र करनी चाहिए।
यह तो अच्छा है कि फ़िल्म-इंडस्ट्री में सन्यास की परंपरा नहीं है, वरना बहुत-सारे बुज़ुर्गवार घर बैठे होते।
-संजयग्रोवर
02-11-2013
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