(ये प्रतिक्रियाएं/समीक्षाएं साहित्य या पत्रकारिता के किसी पारंपरिक ढांचे के अनुसार नहीं होंगीं। जिस फ़िल्म पर जितना और जैसा कहना ज़रुरी लगेगा, कह दिया जाएगा । (आप कुछ कहना चाहें तो आपका स्वागत है।)

Sunday 18 September 2016

पिंक: भक्तिकरण और सशक्तिकरण

फ़िल्म की शुरुआत में रश्मि शर्मा फ़िल्म्स् का लोगो/मोनोग्राम दिखाई देता है जिसमें एक मर्द, चेहरा देखनेवालों के सामने किए, बांसुरी बजा रह़ा है। सर में मोरपंख लगा है। साथ में एक स्त्री है जिसका साइड पोज़ दिखाया गया है, बल्कि उसकी पीठ दर्शकों की तरफ़ है, स्त्री भयभीत मालूम होती है, उसका सिर लगभग बांसुरी के नीचे से शुरु होता है। इस तस्वीर को देखकर एक प्रचलित-पौराणिक किरदार कृष्ण की याद आना स्वाभाविक है। वही कृष्ण जिन्होंने (एक सुनी हुई कहानी के अनुसार) अर्जुन को मार-काट की ‘फ़िलॉस्फ़ी’ समझाई और ख़ुद दुशासन को मारने के बजाय द्रोपदी का चीर बढ़ाकर समय को लंबा खींचते रहे। मुझे इंटरनेट पर लगे कुछ तथाकथित प्रगतिशीलों के फ़ोटोग्राफ्स याद आते हैं जिनमें वे अपना एक हाथ अपने साथ खड़ी स्त्री के पीछे ले जाते हुए उसके दूरवाले कंधे पर रखकर उसे सहारा दिए रहते हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि यह किस टाइप का सशक्तिकरण है जिसमें स्त्री फ़ोटो में भी बिना पुरुष के सहारे के खड़ी नहीं हो सकती !? फिर सोचता हूं कि (कहानीनुसार) जो कृष्ण सोलह हज़ार रानियां घर में रखते हैं और कई गोपियों को डेली जमुना-किनारे बुलाते हैं, उनके कपड़े चुराते हैं ; जिनकी गोपियों और पत्नियों के लोगों को नाम तक नहीं पता, वे स्त्रियों का सशक्तिकरण करते रहे या अपना !? क्या स्त्रियां आज भी पुराने टाइप के फ़ोटोफ्रेमों की तरह हैं जिनके पीछे स्टैंड न लगा हो तो फ़ोटोफ्रेम गिर-गिर जाते थे !? आगे मैं सोचता हूं कि कृष्ण घर में और जमुना किनारे पर स्त्रियों की इतनी भीड़ जमा करके करते क्या थे !? चाहते क्या थे !? क्या यह आजकल के मर्दों/लड़कोंवाला अहंकार नहीं था कि ‘मुझे तो इतनी लड़कियां जानतीं हैं या मरतीं हैं, कोई भी काम पड़े, मेरे पास ही आतीं हैं (हालांकि मैंने-कहानीनुसार-द्रोपदी और अन्य मित्रों-रिश्तेदारों का क्या किया यह भी वे जानतीं हैं, फिर भी आतीं हैं..)....

(शेष कुछ समय बाद....)

18-09-2016


यह ब्लॉग शुरु करने के पीछे मंशा भी यही थी कि मैं किसीकी आरती नहीं उतारुंगा, जो मुझे लगता है, और लगता है कि इससे मेरा और समाज का नुकसान होता है, वह लिखूंगा।
 

इस फ़िल्म में एक डायलॉग है कि ‘स्त्री की नो का मतलब है नो’। सच तो यह है कि दोहरे-तिहरे-चौहरे........मानदंडों वाले समाज में किसीकी, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष, नो का मतलब नो और यस का मतलब यस नहीं होता। यह बहुत मुश्क़िल इसलिए है कि हमारे धर्म, संस्कृति, साहित्य और फ़िल्में....जी हां फ़िल्में, सभी हमको सिखाते हैं कि दिखाने के दांत अलग और खाने के अलग होने चाहिए, पोस्टर या प्रोमों में वास्तविक कृति का बैस्ट हिस्सा दिखाना चाहिए। इसमें हिंदी फ़िल्मों का भी बड़ा हाथ है कि स्त्री किसीको चाहते हुए भी पहली बार में यस इसलिए नहीं कर सकती कि कहीं उसे चालू न समझ लिया जाए। हम लोग तो किसी मित्र-रिश्तेदार के भी घर जाते हैं तो पहली बार तो चाय-पानी के लिए भी ना-ना करते हैं जबकि बाद में हम आराम से खा-पीकर लौटते हैं। इस सबका मतलब यह नहीं कि स्त्री की नो का मतलब यस है या मर्द की यस का मतलब नो है। दरअसल तो यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर है, वही बता सकता है कि क्या बात कहते हुए उसके मन में दरअसल क्या था, कोई एक आदमी सबके स्वभाव को तय नहीं कर सकता। न तो सारी स्त्रियां एक जैसी हैं न सारे मर्द। हिंदी फ़िल्मों में बहुत सारे गीत ऐसे हैं जो बताते हैं हमारी फ़िल्में शुरु से ऐसी बिलकुल नहीं थी जैसी अब हम हम बना रहे हैं। एक-दो गीत लगा रहा हूं, बाक़ी आप ख़ुद भी खोज सकते हैं।


जब भारत के लोग पाक़िस्तान जाते हैं तो लौटकर बताते हैं कि हमारा तो बड़ा सत्कार हुआ और यहां आकर पाक़िस्तानी लोग भी यही कहते हैं। लगता है विज्ञापन में अतिथि-सत्कार की परंपरा गंगा-जमुनी दोनों संस्कृतियों में बहुत बढ़िया है। और आजकल इन्हींमें से कई लोग एक-दूसरे के बारे में क्या-क्या कह रहे हैं वह भी सामने ही है।
 


जहां हर आदमी बिना डरे ना को ना और हां को हां की तरह व्यक्त कर सके वहां पूरे समाज का सच्चा और ईमानदार होना ज़रुरी है।

29-09-2016

वैसे मुझे यह सोचकर ही हंसी आती है कि एक रंग-विशेष पहनने से लोग आज़ाद हो सकते हैं। क्या आज़ादी इतनी ही आसान और बचकानी चीज़ है!?

11-03-2017


(आगे और भी)

-संजय ग्रोवर  





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